Tuesday, August 25, 2009

पार्टी विद डिफरेंस नहीं पार्टी विद डिफरेंसेस

भाजपा कभी पार्टी विद डिफरेंस का दावा करती थी और संघ परिवार के एक अनुशासित स्वयंसेवक की तरह सभी की जबानें सिली हुई होती थी। तब गोधरा भी हुआ और गुजरात दंगे भी। लेकिन किसी ने जुबान नहीं खोली। वाजपेयी ने जरूर कहा कि शासक को राजधर्म का पालन करना चाहिए लेकिन किसी एक नेता ने उनके पक्ष में नहीं कहा। आडवाणी ने मैटर्निख की तरह ही प्रतिक्रियावादी व्यवहार किया( वह ऐसा 20 सालों से कर रहे हैं। ) लेकिन कोई भी सामने नहीं आया, फिर आडवाणी ने रंग बदला, धर्म निरेपक्ष हुए और जिन्ना की बड़ाई की। फिर जसवंत का जिन्ना प्रेम जागा, इस बार बात थोड़ी अलग थी, जसवंत ने सरदार पटेल को कटघरे में खड़ा कर दिया और फिर अनुशासनहीनता की लाठी जसवंत पर पड़ी। पार्टी का दो मुंहा रंग तो जनता देख ही चुकी थी अब शौरी प्रकरण आया। और पार्टी पुनः चुपचाप। क्या हो गया है भाजपा को, दरअसल यह हार की खीज है और सबसे बड़ी विडंबना इस पार्टी के साथ यह है कि इनके पास अब अटल नहीं है वह हर जगह फिसल रही है आगे के लिये भी कोई विशेष आशा नहीं दिखती क्योंकि पार्टी के पास दूसरे दर्जे के तो लोग हैं अटल जैसा पहले दर्जे को कोई भी नेता नहीं।