Monday, June 20, 2011

पीढ़ियों का मतभेद


युवा वर्ग उत्साही होता है वह खुले आसमान में उड़ने का आनंद लेना चाहता है उसकी महत्वाकांक्षाओं की मानो कोई परिधि ही नहीं होती। बुजुर्ग खुले आसमान में उड़ने का जोखिम जानते हैं क्योंकि उन्होंने भी जवानी में ऐसे ही प्रयास किये थे और अक्सर इन प्रयासों का नतीजा गहरी विफलता में मिला। वह चाहते हैं कि युवा धीमे-धीमे, संतुलित और रणनीतिक तरीके से अपनी मंजिलें प्राप्त करें। बुजुर्गों द्वारा अपनाई जाने वाली अतिरिक्त सावधानी और युवा वर्ग का अपरिमित और जोखिम भरा जोश अक्सर दोनों पीढ़ियों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा करता है और इसका नतीजा आता है पीढ़ियों के मतभेद के रूप में जिसे हम अंग्रेजी में जनरेशन गेप भी कहते हैं। यह मतभेद अक्सर मामूली विवाद के रूप में शुरू होते हैं लेकिन अगर इसे सही तरीके से समझा नहीं गया तो पीढ़ियों के बीच की दरार कुछ ही समय में खाई के रूप में बदल जाती है जिसे पाट पाना प्रायः असंभव होता है।
पीढ़ियों का मतभेद हमारे समय की सच्चाई है वैसे तो यह हमेशा से मौजूद रहा है लेकिन 21 वीं सदी में जिस तेजी से बदलाव आते जा रहे हैं यह संकट और भी गहरा गया है। दरअसल 21 वीं सदी में हम वैश्वीकरण से बहुत अधिक प्रभावित हो रहे हैं हमारे सोचने के ढंग में पाश्चात्य प्रभाव तेजी से शामिल हो रहे हैं विशेषकर युवा पीढ़ी जो कान्वेंट शिक्षित है परंपरा से कट रही है। वह उन्मुक्त विचार शैली पसंद करती है वह हिचक तोड़ रही है और कई बार वह ऐसे विचारों को भी प्रकट कर रही है जो परंपरा के पोषकों को कतई रास नहीं आते। नई पीढ़ी की जीवन-शैली भी बदली है। महंगे रेस्टारेंट में देर तक चलने वाले डिनर, पार्टियों में जमकर किया जाने वाला नाच-गाना और इन महफिलों को और भी रंगीन बनाने के लिये वाइन का प्रयोग, यह हमारे समय की सच्चाई है और यह केवल महानगरों तक सिमटी नहीं है छोटे शहरों में भी यह चलन तेजी से बढ़ा है। गांवों की बात करें तो यहां भी युवा पीढ़ी तेजी से शराबखोरी का शिकार हो चली है। इसका बड़ा कारण 21वीं सदी में आई समृद्धि भी है। अधिकांश परिवारों की आय केवल रोटी-कपड़ा जुटाने तक सीमित नहीं है उनके पास अतिरिक्त आय आई है और स्वाभाविक रूप से इसका कुछ हिस्सा उनके बच्चों तक भी पहुंचता है। जब अतिरिक्त पैसे जेब में हो तो करियर संबंधी चिंताएं भी कम हो जाती हैं और मन भी स्वाभाविक रूप से बुराईयों की ओर भटकता है तो ऐसे में 21वीं सदी में अगर नई पीढ़ी में मूल्यों की कमी आई है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। अभिभावक अपने बच्चों को बुराईयों के इस जाल से बाहर निकालना चाहते हैं वह इन पर दबाव बढ़ाते चलते हैं और इसका नतीजा होता है कि बच्चों के मन में अपने अभिभावकों के प्रति विद्रोह बढ़ता चला जाता है। दूरियां और बढ़ती चली जाती हैं और कोई भी समझ नहीं पाता कि कैसे इन मतभेदों को दूर किया जाये।
महंगी गाड़ियां, महंगे मोबाइल सेट और मंहगे कपड़े, यह नई जीवन-शैली की दरकार है। आपकी प्रतिष्ठा इस बात से जानी जाती है कि आपके पास कितना अच्छा मोबाइल है, आपके कपड़े किस ब्रांड की कंपनी के हैं और आप कैसी गाड़ी ड्राइव करते हैं। जाहिर है कि इसमें युवा चूहा-दौड़ में शामिल हो जाते हैं। अगर उनके पास यह साधन नहीं है तो वह इन्हें जुटाने के लिये अपने अभिभावकों से जिद करते हैं। अगर यह साधन हों भी तो इनसे बेहतर और महंगे उपकरणों की दरकार होती है जाहिर है कि यह कभी संतुष्ट न होने वाली इच्छाएं हैं। अभिभावक अगर इन्हें पूरा करते हैं तो और भी बड़ी इच्छाएं उनके समक्ष रख दी जाती हैं अगर वह इन्हें न पूरा करें तो युवा पीढ़ी में असंतोष गहरा जाता है।
अगर अभिभावक उनकी इच्छा पूरी न करें तो युवाओं के पास दो ही रास्ते रह जाते हैं पहला तो वह अपराध की दिशा में मुड़ जाते हैं अथवा वह ऐसे करियर का चुनाव करते हैं जहां उन्हें अपरिमित विकास की संभावनाएं दिखती हों। करियर के चुनाव को लेकर कई बार युवावर्ग अभिभावकों से उलझ जाता है। अक्सर अभिभावक चाहते हैं कि बच्चें उन्हीं विषयों का चयन करें जिनसे बेहतर नौकरी मिलने की आशा हो, यहां वह अपने बच्चों की रूचि नहीं देखते। होता यह है कि बच्चे उन विषयों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते जो उनकी रूचि के नहीं होते हैं। इससे बच्चे अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं के बोझ के नीचे दबते जाते हैं और अंततः विद्रोह कर देते हैं। कई बार यह भी होता है कि बच्चा किसी भी विषय में रूचि नहीं दिखाता लेकिन ललित कलाओं जैसे पेंटिंग, संगीत और नृत्य में बेहतर प्रदर्शन करता है। उसे लगता है कि वह इन क्षेत्रों में अपना करियर बना सकता है लेकिन अधिकतर अभिभावक रूढ़िवादी होते हैं और अपने बच्चों को ऐसे क्षेत्रों में करियर बनाने हतोत्साहित करते हैं। कुछ बच्चे पढ़ाई में अच्छे नहीं होते लेकिन खेलों में बहुत अच्छे होते हैं। ऐसे मामलों में भी अभिभावक बच्चों को हतोत्साहित कर देते हैं जैसाकि हमारे यहां पुरानी कहावत है कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे होशियार, खेलोगे कूदोगे तो बनोगे गंवार। चूंकि करियर से ही भविष्य जुड़ा होता है अतएव इस मामले में उत्पन्न मतभेद पीढ़ियों के संघर्ष को लंबे समय तक बनाये रहते हैं।
पीढ़ियों के बीच मतभेद स्वाभाविक हैं और स्वाभाविक तरीकों से इन्हें हल भी किया जा सकता है। इसके लिये विभिन्न परिस्थितियों के प्रति सजगता बनाये रखने की आवश्यकता मात्र होती है। सबसे पहले अभिभावकों को चाहिये कि वह ऐसी परिस्थिति उत्पन्न ही न होने दे जिससे बच्चों के मन में असंतोष जागे। यह तभी संभव है जब बचपन से ही बच्चे को उचित संस्कार दिये जायें, उनके भीतर जिम्मेदारी का बोध जगाया जाये और उनके सहज विकास को प्रेरित किया जाये। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं उन्हें ढालकर कैसा भी रूप दिया जा सकता है। यह युवा वर्ग के साथ संभव नहीं होता, जवानी की दहलीज पर कदम रखने तक युवा के भीतर कुछ विचार बद्ध रूप धारण कर लेते हैं इसका मतलब यह है कि युवा अपने विचारों का निर्माण कर चुका होता है और इनमें परिवर्तन की गुंजाइश कम ही होती है। ऐसी स्थिति में अभिभावकों द्वारा दबाव डालने पर स्थिति विस्फोटक हो सकती है।
स्कूल बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन यह पूरी पढ़ाई का सीमित अंश ही होता है। इसके चलते नैतिक शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी अभिभावकों पर होती है। अगर वह चाहते हैं कि उनके और बच्चों के बीच भविष्य में जनरेशन गेप जैसी स्थिति न बने तो उन्हें अपने बच्चों को परंपरा का महत्व सिखाना होगा। उन्हें अपने अतीत पर गौरव करना सिखाना होगा और इसके लिये उन्हें अतीत की जानकारी देनी होगी। विडंबना यह है कि अधिकांश अभिभावक स्वयं परंपरा का महत्व नहीं जानते, वह केवल इनसे चिपके रहते हैं ऐसे में वह अपने बच्चों से अगर इसके पालन की आशा करें तो मतभेद की स्थिति उत्पन्न होगी ही। वह पीढ़ी जो आने वाली पीढ़ी से संस्कारी होने की आशा करती है उसे स्वयं इन संस्कारों को जीना होगा। होता यह है कि अभिभावक अपने बच्चों से पढ़ने-लिखने की आशा करते हैं लेकिन स्वयं उनके व्यक्तिगत जीवन में यह बात अनुपस्थित रहती है। वह बच्चों को तो टेलीविजन देखने से रोकते हैं लेकिन खुद ही इसका आनंद लेते रहते हैं इस दोहरेपन के चलते अगर बच्चों में विद्रोह की भावना उठे तो क्या इसे अस्वाभाविक कहा जायेगा। इसके साथ ही पुरानी पीढ़ी को यह भी स्वीकार करना होगा कि कुछ बदलाव स्वाभाविक हैं। हम कुएं के मेंढक की तरह नहीं रह सकते। हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक करना होगा और उन पाश्चात्य धारणाओं को स्वीकार करना होगा जो भारतीय परंपरा से इत्तफाक नहीं रखते लेकिन नैतिक दृष्टि से स्वीकार्य हो सकते हैं। जैसाकि महात्मा गांधी ने कहा था कि हमें अपनी खिड़कियां खुली रखनी चाहियें ताकि पाश्चात्य विचारों की वायु का प्रवाह भी हम तक हो सके लेकिन हमारे पैर धरती पर भलीभांति जमे होने चाहिये जिससे विचारों का अंधड़ हमें अपनी जमीन से विस्थापित न कर सके।
महंगी गाड़ियों और मोबाइल फोन का शौक तब जन्म लेता है जब हम कड़ी मेहनत की कमाई से उपजे संतोष के मूल्य को भूल जाते हैं। जब हम अपनी परंपरा से कट जाते हैं और जब हमारे जीवन में उच्चतर मूल्यों का स्थान पैसा ले लेता है। चूंकि अभिभावक भी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के ही प्रयास में लगे रहते हैं अतएव उन्हें अपने बच्चों को यह समझाने में बहुत परेशानी होती है कि वह उन चीजों के बगैर भी रह सकते हैं।
करियर का विषय बहुत महत्वपूर्ण होता है और मतभेदों को टालने का उपयुक्त तरीका यही है कि बच्चे को अपनी रूचि का विषय चुनने की इजाजत दी जाये। अपनी रूचि का विषय चुनकर ही बच्चा अपनी पूरी दक्षता का उपयोग कर सकता है और कार्यक्षेत्र में अपनी पहचान कायम कर सकता है। हमें इस पूर्वाग्रह को त्यागना होगा कि केवल कोर्स की पढ़ाई ही अच्छे करियर का माध्यम हो सकती है। अगर बच्चा ललित कलाओं में बेहतर प्रदर्शन करता है तो इस दिशा में भी अच्छी संभावनाएं होती हैं। अगर बच्चा खेल में रूचि दिखा रहा है तो उसे इस ओर प्रोत्साहित करना चाहिये, उसे प्रशिक्षण की सुविधाएं देनी चाहिये ताकि वह इस दिशा में गंभीरता से प्रयास कर सके। जहां तक नौकरी का प्रश्न है केंद्र व राज्य सरकार ही नहीं, निजी कंपनियां भी खिलाड़ियों को अपने यहां मानद नौकरी देकर गौरव महसूस करती हैं। अगर सचिन तेंदुलकर के अभिभावकों ने उनके हाथ से बल्ला छीन लिया होता तो वह बहुत सामान्य और गुमनामी की जिंदगी जीते।
मतभेदों को टालने की भूमिका केवल पुरानी पीढ़ी को ही नहीं निभानी हैं। युवा पीढ़ी को भी इस ओर कदम उठाने होंगे। उन्हें पुरानी पीढ़ी के अनुभव का सम्मान करना होगा। कई बार यह हो सकता है कि पुरानी पीढ़ी के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे न हों लेकिन इससे उनके व्यवहारिक जीवन के अनुभवों का कोई संबंध नहीं है। कालिदास ने मेघदूतम में एक स्थान पर कोविद ग्राम वृद्धा पद का प्रयोग किया है इसे मेघ को समझाते हुए लिखा गया है, इसका अर्थ है कि गांव के बुजुर्ग भले ही पढ़े-लिखे नहीं है लेकिन अपने अनुभवों की वजह से विद्वान है अतएव समय-समय पर उनका परामर्श लेना उपयोगी साबित होता है। अगर युवा पीढ़ी समझती है कि नये समय की जरूरतों के लिये पुरानी पीढ़ी की सलाह उपयुक्त नहीं है तो वह इसमें बेशक परिवर्तन कर सकती है लेकिन अपने विचारों को रखने का तरीका संयत होना चाहिये। अगर पुरानी पीढ़ी के साथ विचारों में गतिरोध की स्थिति बनी रहती है तो ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी को आश्वस्त करना चाहिये कि जो दिशा उन्होंने चुनी है उसके लिये निर्णय काफी सजगता से लिये हैं और इसका आधार उन कारकों को बनाया हैं जिन पर शायद पुरानी पीढ़ी का ध्यान नहीं गया है अथवा वह नये समय के मूल्यों की अभिव्यक्ति है। दोनों ही पीढ़ियों को चाहिये कि विचारों को प्रगट करने का अपना तरीका बदलें, अपने विचार थोपने की बजाय उसे संवाद के नजरिये से रखें, गतिरोध की आशंका को टालें और नये और स्वस्थ विचारों को ग्रहण करने के प्रति उत्सुक हों।
(निधि के युववाणी कार्यक्रम के लिए लिखा गया लेख)