Translation by noted Indian author and columnist Mr. Khushwant Singh. In a column written for The Hindustan Times, Mr. Singh published his English rendering of Bapu Gandhi's favorite hymn:
A godlike man is one,
Who feels another’s pain
Who shares another’s sorrow,
And pride does disdain.
Who regards himself as the lowliest of the low,
Speaks not a word of evil against any one
One who keeps himself steadfast in words, body and mind,
Blessed is the mother who gives birth to such a son.
Who looks upon everyone as his equal and has renounced lust,
And who honours women like he honours his mother
Whose tongue knows not the taste of falsehood till his last breath,
Nor covets another’s worldly goods.
He does not desire worldly things,
For he treads the path of renunciation
Ever on his lips is Rama’s holy name,
All places of pilgrimage are within him.
One who is not greedy and deceitful,
And has conquered lust and anger
Through such a man Saint Narsaiyon has a godly vision,
Generations to come, of such a man, will attain salvation
Sunday, September 26, 2010
Wednesday, September 22, 2010
बदलते भारत में नई छवि गढऩे को तैयार आरएसएस
रामजन्मभूमि विवाद पर अदालत का फैसला आने को है और आरएसएस की प्रतिक्रियाएं सबको आश्चर्यचकित कर रही हैं। अपने पहले के कठोर रूख के विपरीत आरएसएस ने कहा है कि अदालत के फैसले का सम्मान करेगी और अपनी प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक दायरे में रखेगी। आरएसएस ने यह जरूर कहा है कि अगर फैसले से उसकी अहसमति होती है तो जरूर वह सुप्रीम कोर्ट का रास्ता पकड़ सकता है। इस रूख की तुलना अगर अनुषांगिक दलों की प्रतिक्रिया से करें तो इसमें काफी फर्क है। एक प्रमुख अनुषांगिक दल के नेता ने कहा है कि इस मामले में न्याय केवल संसद द्वारा ही मिल सकता है और संसद को कानून पारित कर मंदिर बनाने का रास्ता प्रशस्त करना चाहिये।
दरअसल संघ परिवार से मिल रहे नये संकेत उन बदलावों के परिणामस्वरूप गढ़े गये हैं जो उदारीकरण के 20 साल के दौर में भारत ने महसूस किये हैं। बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश में भयंकर दंगे हुए थे लेकिन इन दंगों से लोगों को सबक भी मिला। यही वजह है कि बाद में गोधरा जैसे भयंकर हादसे के बाद भी दंगे गुजरात की सीमा में ही रहे। 1997 में भारत में एक नई लीडरशिप आई। इस नये नेतृत्व के उभरने का कारण भाजपा का दक्षिणपंथी रूझान रहा। मुस्लिम वोटबैंक भी बाबरी मस्जिद को बचाने में अक्षम रहे कांग्रेसी नेतृत्व से बिदक गया। वाजपेयी को सर्वसम्मति से लीडर चुने जाने के पहले पार्टी में यह कश्मकश जोरों पर थी कि भाजपा से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन हो? संघ आडवाणी की लौहपुरूष वाली छवि को देखते हुए इन्हें इस सर्वोच्च पद पर चुने जाने का इच्छुक था। यह वह वक्त था जब गोविंदाचार्य जैसे तत्कालीन दिग्गजों ने वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा भी कह दिया था। फिर भी संघ की लीडरशीप यह जानती थी कि वाजपेयी का चेहरा जनता के बीच ज्यादा लोकप्रिय है भले ही संगठनकर्ता के रूप में आडवाणी का योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण था। संघ के भीतर एक ऐसा तबका जरूर था जो तब भी वाजपेयी की पैरोकारी कर रहा था जब उन्होंने सबके सामने मोदी से राजधर्म निभाने की बात कही थी। इस समय सुदर्शन और वाजपेयी के मतभेद खुलकर सामने आये थे।
वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान संघ और भाजपा के बीच कुछ मतभेद भी सामने आये थे लेकिन जहां तक वाजपेयी की बात है उन्होंने सबको साथ में लेकर चलने की नीति से सफलतापूर्वक पांच साल सरकार चलाकर साबित कर दिया कि सौम्य चेहरा और उदार नीतियां ही जनतंत्र में सफल हो सकते हैं। भाजपा राम मंदिर का मुद्दा लेकर चुनावों में गई थी लेकिन गठबंधन राजनीति की जटिलताओं के चलते इस संबंध में कुछ नहीं कर पाई इसका खामियाजा पार्टी को चुनावों में भुगतना पड़ा। वाजपेयी के शासनकाल के दौरान एक दूसरी लीडरशीप आरएसएस में खड़ी हो रही थी जो सौम्य चेहरा लेकर आगे चल रही थी।
मोहन भागवत बदलते हुए आरएसएस का चेहरा थे और यही वजह है कि जब नया उत्तराधिकारी चुनने की बात आई तो दौड़ में सबसे आगे भागवत थे। 80 साल पुराने इस संगठन का नेतृत्व जब मोहन भागवत के हाथों आया तो उन्होंने अपने पहले ही सार्वजनिक बयान में कहा कि आरएसएस ऐसा संगठन है जो बदलते समय की चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को हमेशा से तैयार करता रहा है। 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को दोबारा मिले जनादेश ने भी आरएसएस के लिये आत्ममंथन की स्थिति निर्मित की। 2009 में आम जनता के पास दो विकल्प थे एक तो मनमोहन सिंह जिन्होंने हमेशा अपनी सौम्य छवि सामने रखी और लालकृष्ण आडवाणी जिन्होंने अपनी छवि पूरी तौर पर प्रहार करने वाले नेता की रखी। जनता ने इस लौहपुरूष की छवि को अस्वीकार कर दिया। 20 साल में भारतीय जनता के मुद्दे बदले हैं वह सर्वसम्मति की राजनीति पसंद करती है। उसने वरूण के भड़काऊ भाषणों को पसंद नहीं किया। राहुल की शांत छवि को पसंद किया। 1991 में मंदिर आंदोलन से जुड़े अधकांश नेता जैसे उमा भारती, विनय कटियार, मुरली मनोहर जोशी आज राजनीतिक हाशिये में हैं। आरएसएस ने अपनी नई छवि उदारीकरण के दौर में बदल रहे इसी नये भारत में खोजनी शुरू कर दी है।
दरअसल संघ परिवार से मिल रहे नये संकेत उन बदलावों के परिणामस्वरूप गढ़े गये हैं जो उदारीकरण के 20 साल के दौर में भारत ने महसूस किये हैं। बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश में भयंकर दंगे हुए थे लेकिन इन दंगों से लोगों को सबक भी मिला। यही वजह है कि बाद में गोधरा जैसे भयंकर हादसे के बाद भी दंगे गुजरात की सीमा में ही रहे। 1997 में भारत में एक नई लीडरशिप आई। इस नये नेतृत्व के उभरने का कारण भाजपा का दक्षिणपंथी रूझान रहा। मुस्लिम वोटबैंक भी बाबरी मस्जिद को बचाने में अक्षम रहे कांग्रेसी नेतृत्व से बिदक गया। वाजपेयी को सर्वसम्मति से लीडर चुने जाने के पहले पार्टी में यह कश्मकश जोरों पर थी कि भाजपा से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन हो? संघ आडवाणी की लौहपुरूष वाली छवि को देखते हुए इन्हें इस सर्वोच्च पद पर चुने जाने का इच्छुक था। यह वह वक्त था जब गोविंदाचार्य जैसे तत्कालीन दिग्गजों ने वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा भी कह दिया था। फिर भी संघ की लीडरशीप यह जानती थी कि वाजपेयी का चेहरा जनता के बीच ज्यादा लोकप्रिय है भले ही संगठनकर्ता के रूप में आडवाणी का योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण था। संघ के भीतर एक ऐसा तबका जरूर था जो तब भी वाजपेयी की पैरोकारी कर रहा था जब उन्होंने सबके सामने मोदी से राजधर्म निभाने की बात कही थी। इस समय सुदर्शन और वाजपेयी के मतभेद खुलकर सामने आये थे।
वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान संघ और भाजपा के बीच कुछ मतभेद भी सामने आये थे लेकिन जहां तक वाजपेयी की बात है उन्होंने सबको साथ में लेकर चलने की नीति से सफलतापूर्वक पांच साल सरकार चलाकर साबित कर दिया कि सौम्य चेहरा और उदार नीतियां ही जनतंत्र में सफल हो सकते हैं। भाजपा राम मंदिर का मुद्दा लेकर चुनावों में गई थी लेकिन गठबंधन राजनीति की जटिलताओं के चलते इस संबंध में कुछ नहीं कर पाई इसका खामियाजा पार्टी को चुनावों में भुगतना पड़ा। वाजपेयी के शासनकाल के दौरान एक दूसरी लीडरशीप आरएसएस में खड़ी हो रही थी जो सौम्य चेहरा लेकर आगे चल रही थी।
मोहन भागवत बदलते हुए आरएसएस का चेहरा थे और यही वजह है कि जब नया उत्तराधिकारी चुनने की बात आई तो दौड़ में सबसे आगे भागवत थे। 80 साल पुराने इस संगठन का नेतृत्व जब मोहन भागवत के हाथों आया तो उन्होंने अपने पहले ही सार्वजनिक बयान में कहा कि आरएसएस ऐसा संगठन है जो बदलते समय की चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को हमेशा से तैयार करता रहा है। 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को दोबारा मिले जनादेश ने भी आरएसएस के लिये आत्ममंथन की स्थिति निर्मित की। 2009 में आम जनता के पास दो विकल्प थे एक तो मनमोहन सिंह जिन्होंने हमेशा अपनी सौम्य छवि सामने रखी और लालकृष्ण आडवाणी जिन्होंने अपनी छवि पूरी तौर पर प्रहार करने वाले नेता की रखी। जनता ने इस लौहपुरूष की छवि को अस्वीकार कर दिया। 20 साल में भारतीय जनता के मुद्दे बदले हैं वह सर्वसम्मति की राजनीति पसंद करती है। उसने वरूण के भड़काऊ भाषणों को पसंद नहीं किया। राहुल की शांत छवि को पसंद किया। 1991 में मंदिर आंदोलन से जुड़े अधकांश नेता जैसे उमा भारती, विनय कटियार, मुरली मनोहर जोशी आज राजनीतिक हाशिये में हैं। आरएसएस ने अपनी नई छवि उदारीकरण के दौर में बदल रहे इसी नये भारत में खोजनी शुरू कर दी है।
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