Saturday, December 5, 2009

क्या हनुमान के लंका दहन को हिंसा के दायरे में रखा जा सकता है?

सुबह-सुबह मां सुंदरकांड का पाठ पढ़ती है, आज ध्यान चला गया, पहले तो विभीषण के प्रसंग पर कि पूरी लंका में एक सुंदर जगह दिखी जहां तुलसी का पौधा लगा हुआ था और एक व्यक्ति जो शैतानों की बस्ती में भी अपना इमान खोये बगैर अपने उच्चतर उद्देश्यों को लेकर लगा हुआ है। फिर प्रसंग कि हनुमान भूखे थे और मां सीता से अशोक वाटिका में फल खा लेने की आज्ञा मांगी बहुत सुंदर प्रसंग था। फिर इसके बाद हनुमान की पूंछ में आग और फिर ईंट का जवाब पत्थर से, पूरी लंका को धूं-धूं कर दिया। इस घटना को बार-बार सुना लेकिन पहली बार प्रश्न मन में आया कि क्या हनुमान का लंका दहन हिंसा थी या एक ऐसे शासक को दी गई चुनौती थी जिसके राज्य में माताओं और बहनों की अस्मत भी सुरक्षित नहीं रह गई थी। यहां हम राम का चरित्र देखें तो उन्होंने हर स्तर पर युद्ध को टालने की कोशिश की, अंगद को भेजा और अंगद का जब अपमान किया गया तो वह पैर जमाकर बैठ गये।
यद्यपि हनुमान ने लंका जलाई लेकिन किसी भी रहवासी को तकलीफ पहुंचाई हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता, केवल उन्होंने समृद्धि के मद में चूर हो गये एक शहर को चुनौती दी कि इस समृद्धि को हासिल करने के लिए उन्होंने कितने निर्दोषों को सताया है। विचार करने पर मुझे यह प्रसंग फिर बेहद सहज लगा।

Sunday, November 1, 2009

क्या आपने भी लिया है नजर कवच यंत्र

अध्यात्म का बाजार सदियों से विकसित है अधिकतर इसमें तंत्र-मंत्र का खेल है और कुछ सदियों पुरानी वैदिक ऋचाओं का बिना जाने अनंत दोहराना ही है लेकिन इसमें हम मानते हैं कि इसे मानने के पीछे आधार हो सकते हैं कुछ तो यह कि परंपरा में इसे स्वीकार किया गया है लेकिन आधुनिक काल के ढोंगी बाबाओं का क्या करें जो अध्यात्म का चोला पहनकर खुलकर अपनी दुकानदारी कर रहे हैं। ऐसे ही बाबाओं में अग्रणी नाम है सत्य साईं बाबा का जिन्होंने साईं बाबा जैसे ऊंचे संत का नाम लेकर अपनी दुकानदारी चलाई है। ऐसे बाजार अब हाईटेक भी हो चले हैं इन्होंने मीडिया को भी खरीद लिया है ऐसे ही एक मशहूर चैनल के एक प्रोग्राम में मैने नजर कवच यंत्र के बारे में सुना। एक बेहद सुंदर एंकर बता रही थी कि नजर के प्रभाव के चलते बहुत से बिजनेस बर्बाद हो गये। ऐसे में केवल 2500 रुपए का नजर कवच यंत्र लगा लेने से आप नजर के प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा होये। मेरे पास इसका सबूत भी है मेरी बड़ी बहन ने मुझे बताया कि उसने शिव सुरक्षा कवच लिया है 2500 रुपए का। मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसा कवच न तो शिवपुराण में कहीं हैं और न ही इसकी चर्चा कभी शंकराचार्य ने की है तो धर्म के दलालों के पास ऐसा कवच कहां से पहुंच गया।

Monday, October 26, 2009

हम भस्मासुर नहीं हैं रहमान मलिक साहब

यह बेहद हास्यास्पद बात है कि पाकिस्तान भारत पर तालिबान की गतिविधियों को पाक में बढ़ाने का आरोप लगाये। इसकी साफ वजह है कि भारत की रूचि पड़ोसी देशों में राजनैतिक अस्थिरता फैलाने की नहीं रही है क्योंकि भारत का लोकतंत्र पड़ोसी देश की तरह घृणा फैलाकर राज चलाते रहने में यकीन नहीं करता क्योंकि हमारे हुक्मरानों को इसकी जरूरत नहीं है। इसका सीधा उदाहरण हमे एनडीए सरकार से मिलता है। एनडीए सरकार की विदेश नीति को काफी सख्त माना जाता था लेकिन इन्होंने भी पाकिस्तान की नीति पर संयम से काम लिया, कारगिल के बाद आगे नहीं बढ़े, यहां तक कि बांग्लादेश राइफल की क्रूरता के बावजूद भी विदेश नीति के पक्ष में संयम से काम लिया। इससे साफ झलकता है कि भले ही अन्य मुद्दों में राजनैतिक पार्टियां(भारत में) आक्रामक और कई बार गलत रवैया अख्तियार करती है लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर उपमहाद्वीप को अस्थिर करने की राजनीति नहीं हुई है। हमारे हुक्मरानों को मालूम है कि अगर हम अपने पड़ोसियों में राजनैतिक अस्थिरता फैलाते हैं आग लगाते हैं तो इसकी चिंगारी हम तक भी पहुंचेगी क्योंकि हम भस्मासुरी राजनीति का प्रभाव अपने पड़ोस में देख ही रहे हैं। पाक ने भारत को कमजोर करने जो आतंकी तंत्र खड़ा किया है अब वह ढांचा स्वयं पाक में अस्थिरता फैला रहा है। रहमान मालिक को यह समझना चाहिए कि उनकी नेता बेनजीर भुट्टो भी समझ चुकी थी कि पाकिस्तान की अस्थिरता का बड़ा कारण लंबे समय से भारत विरोधी प्रचार है। चाहे अयूब खां को लें अथवा जुल्फिकार अली भुट्टो को लें जिन्होंने भारत के खिलाफ 1000 साल तक जंग जारी रखने की बात कही थी, पाक के हुक्मरानों ने भारत के खिलाफ आतंक का तंत्र बनाकर अपने राष्ट्र को ही खतरे में डाल दिया है। इस विषवृक्ष के फल अब उनकी आने वाली पीढ़ियां भोग रही हैं। इसके बावजूद रहमान मलिक को यह समझ नहीं आ रहा है। जरदारी सरकार की स्थिति उस वैद्य की तरह है जो रोग का सही कारण तो समझ नहीं रहा है लेकिन अपनी साख बचाये रखने के लिए मरीज पर अंधाधुंध प्रयोग कर रहा है। भारत को मालूम है कि अगर वह पाकिस्तान को बचाये रखना चाहता है तो उसे तालिबान जैसे भयंकर विघटनकारी तत्वों को रोकना होगा।

Thursday, October 22, 2009

हिटलरशाही को बढ़ावा देने वाला जनादेश

विधानसभा चुनाव के नतीजे आज जैसे-जैसे आते गये, आम जनता में दो तरह की प्रतिक्रियाएं रही, एक तो तीनों राज्यों में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन को लेकर और दूसरे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को मुंबई में मिली सफलता को लेकर। कांग्रेस की सफलता एक तरह से लोकसभा चुनाव की अगली कड़ी मानी जा सकती है और लंबे हनीमून का हिस्सा भी, जो संभवतः तब तक चलता रहे जब तक प्रतिद्वंद्वी एनडीए की भीतरी रस्साकशी में कोई नेता उभर कर सामने न आये। मनसे की सफलता अधिक महत्वपूर्ण है यह सफलता पूरी तौर पर राज ठाकरे की है जिन्होंने साबित कर दिया है कि वह अपने चाचा बाला साहब ठाकरे के वास्तविक उत्तराधिकारी है। भले ही यह नतीजे बाला साहब के लिए काफी निराशा से भरे हों लेकिन इन्होंने साबित कर दिया कि जिस राजनीति को लेकर शिवसेना को ठाकरे ने जन्म दिया उसकी अहमियत अब भी कायम है। वही राजनीति जिसकी शुरूआत कार्टुनिस्ट ठाकरे ने मुंबई की गलियों में कन्नड़ भाषी जनता का विरोध कर आरंभ की थी जिसको ऊंचाई हिंदू गौरववाद जैसे भावनात्मक मुद्दे ने और पाकिस्तान के विरूद्ध उग्रराष्ट्रवाद ने दी। ठाकरे की थीम में सब कुछ था, हर तरह से उग्र, हुंकार भरने वाला। लेकिन जिन्हें राजनीति आती है वह जानते हैं कि भावनात्मक मुद्दे स्पंज की तरह होते हैं इन्हें केवल एक बार पसीजा जा सकता है दूसरी बार कोशिश करे तो कुछ नहीं। शिवसेना ने सत्ता सुख चखा था और प्रमोद महाजन जैसे सत्ता तंत्र के काफी निकट लोगों का सहयोग भी इसके लिए हासिल किया था। भावनात्मक मुद्दों से दिनचर्या के काम नहीं चलाये जा सकते ये महाराष्ट्र की जनता ने शिवसेना के कार्यकाल में देख लिया था तो ठाकरे की राजनीति के लिए स्पेस नहीं बचा था और उद्धव के लिए तो कुछ भी नहीं क्योंकि न तो वे शेर की तरह लगते हैं और न ही उस तरह से गुर्रा सकते हैं। वैसे उनके चचेरे भाई और अब कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन चुके राज शेर की तरह लगते हैं और इसकी तरह गुर्राते भी हैं(भले ही वह असली जिंदगी में उनके भीतर शेर का जिगर हो या नहीं) । राज ने साबित कर दिया है कि ठाकरे ने पुत्रमोह में भले ही उन्हें सत्ता सुख से वंचित कर दिया हो लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र में शिवसेना की सत्ता में गलत घोड़े पर दांव लगाने की गलती तो कर ही दी है।
राज की अभूतपूर्व सफलता ने कुछ सवाल उठाये हैं विशेषकर कुछ महीने पूर्व हुए लोकसभा के जनादेश के संबंध में किये जा रहे दावों पर। लोकसभा के नतीजों की व्याख्या करते हुए कहा गया था कि भारतीय मतदाता काफी समझदार हो गया है अब वह जातिवाद, संप्रदायवाद और क्षेत्रीयतावाद के नारों से उब चुका है और परिपक्व राजनीति की ओर आगे बढ़ रहा है। गौरतलब है कि इन चुनावों में राज ठाकरे की तरह का एक चेहरा पीलीभीत से चुनाव लड़ रहा था जिसका नाम था वरूण गांधी। जनादेश 2009 को एक तरह से राहुल की सौम्यता और वरूण की उग्रता के बीच की जंग के रूप में भी देखा गया था और लोगों ने कहा कि राहुल की जीत हुई है। जैसाकि ऊपर कहा गया कि विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के चल रहे सुखांत नाटक की अगली कड़ी का हिस्सा भर थे। राज ठाकरे की सफलता बताती है कि क्षेत्रीयतावाद जैसे मसले भारतीय राजनीति में अब भी अहम हैं और इससे वोट पड़ते हैं। दुख की बात है कि भारत की वित्तीय और सांस्कृतिक राजधानी से ऐसा जनादेश आ रहा है जो ऐसे व्यक्ति की पैरोकारी कर रहा है जो मराठी अस्मिता के नाम पर गालीगलौच का इस्तेमाल कर रहा है। दुख की बात यह भी है कि मुंबई ने सबसे ज्यादा महत्व उस व्यक्ति को दिया जो तब अपनी मांद में बैठा रहा जब आतंकवादी मुंबई की छाती को छलनी कर रहे थे।
राज की विधानसभा चुनावों में आशातीत सफलता को सीटों के लिहाज से कम नहीं आंकना चाहिए। हमे याद रखना चाहिए कि हिटलर की नाजी पार्टी को भी पहले चुनाव में 12 सीटें मिली थी और इसके बाद इनका आंकड़ा निरंतर बढ़ते ही गया था। राज ठाकरे को बढ़ाने में केवल वह लोग दोषी नहीं हैं जो क्षेत्रीयतावाद के खतरे को कम करके आंक रहे हैं इसके लिए वह भी दोषी हैं जो इसकी कर्कश आवाज को सुनकर भी कानों में ऊंगली डाले बैठें हैं।
ऐसे लोगों के लिए ही दिनकर ने कुरूक्षेत्र में लिखा है कि
“ समर शेष है रण का भागी केवल नहीं व्याघ्र, जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध

Thursday, October 8, 2009

वेरियर एल्विन जो मिशनरी से आदिवासी बने


दुनिया भर में मिशनरी समाज ने भले ही पुरानी सांस्कृतिक मान्यताओं में हस्तक्षेप कर उन्हें तोड़ा हो लेकिन उन्हें ही पहली बार श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने अब तक अनछुयी धरती के हजारों रंगों को हमारे सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने हमे दुनिया के ऐसे हिस्से दिखाये जहां हम अपने सबसे पुराने समय को और उस समय के व्यवहारों को जान सकते थे। संभवतः रूसो अगर अठारहवीं सदी की बजाय उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए होते तो उन्हें अपने कल्पित संसार का वास्तविक नजारा देखने मिलता। मिशनरियों की यह प्रक्रिया शुरू हुई सेंट टामस जैसे यात्रियों से जिन्होंने स्पाइस रूट को पहली बार धार्मिक मिशन के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन दरअसल सही मायने में आदिवासी संस्कृति के सबसे करीब हमे ले गये राबर्ट लिविंगस्टोन जैसे यात्री, जिनमें मिशनरी उत्साह तो था ही, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रंगों से भी गहरा लगाव था। लेकिन यह आलेख मिशनरियों के दुनिया की खोज को सामने लाने नहीं लिखा गया है यह आलेख तो ऐसे मिशनरी के बारे में है जिसने अपना मिशन ही बदल दिया। वेरियन एल्विन जो सुदूर अंधमहासागर के सियरा लियोन में धर्मप्रचार कर रहे एक पादरी के बेटे थे, भारत में धर्म प्रचार करने पहुंचे। एल्विन सही मायने में ईसा के उपदेशों को जीने वाले लोगों में से थे और इसके लिए स्वाभाविक रूप से भारत आने पर वह गांधी के करीब आये जो मेरे विचार से २०वीं सदी में ईसा के आदर्श को जीने वाले चुनींदा लोगों में से थे। एल्विन के व्यक्तित्व की बनावट दुनिया में पैदा होने वाले उन थोड़े से लोगों में से थी जो उद्दाम नही के किनारे केवल नजारा देखना पसंद नहीं करते, वह उसमें उतरते हैं और नदी के भीतर की अशांत हलचल उनके भी जीवन का हिस्सा बन जाती है। दिलचस्प बात यह है कि एल्विन भारत में आदिवासी संस्कृति का धार्मिक रूपांतरण करने आये थे, ऐसे लोग जो उनके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग थे, हमेशा से शांत रहने वाले, दुर्गम घाटियों की खोह में सदियों से एक जैसा जीवन जीने वाले।
हो सकता है कि एल्विन अपने साथ वैसा ही सिद्धांत लेकर आये हों जैसा किपलिंग ने भारत के लिए सभ्य जाति का बोझ जैसा तथाकथित उदार मुहावरा प्रस्तुत किया था। लेकिन आदिवासियों के बीच रह कर एल्विन को लगा कि इनके आचार-विचार और जीवन दर्शन हमारे सभ्य समाज से कहीं बेहतर है और हम जो इन्हें अपने आदर्श सिखाने आये हैं कितने बेमानी विचार रखते आये थे। एल्विन मानवविज्ञानी नहीं थे लेकिन उनकी गोड़ जनजाति पर लिखी किताबें उनके इस विषय पर असाधारण ज्ञान और समझ की परिचायक हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान एल्विन को लगा कि भीतर से वह भी कहीं न कहीं आदिवासी हैं और जब ऐसा हुआ तो स्वाभाविक था कि चर्च के विरोध का सामना करना पड़ता। एल्विन ने हम भारतीयों को भी पहली बार ऐसी दुनिया से परिचित कराया जिनके इतने निकट रहते हुए भी हम इस तरह से परिचित नहीं थे। यद्यपि भारत में वर्णव्यवस्थाओं की कठोरता के बावजूद हिंदू समाज का जनजातीय समाज से स्नेहपूर्ण संबंध रहा है आप कालिदास से लेकर तुलसी के साहित्य तक इसका दर्शन कर सकते हैं। एल्विन ने गोड़ जनजाति के बीच अपना लंबा समय गुजारा और इसके बाद उनकी बहुचर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई, मुड़िया एंड देयर घोटुल। इसका प्रकाशन भारत में क्रांतिकारी थी, भारतीयों के लिए भी अंग्रेजों के लिए भी। (यह बिल्कुल विवेकानंद के शिकागो भाषण की तरह आंखे खोलने वाला था जिसके बारे में न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा था कि हम ऐसे देश में धर्मप्रचार और सभ्यता की बातें करते हैं जो प्रज्ञा की जननी है, विवेकानंद को सुनकर हमें लगता है कि हम कितने गलत था)। घोटुल के भीतर का निर्दोष वातावरण, यहां रहकर स्त्री-पुरूषों को समानता के वातावरण में साथी का वरण और प्रकृति की खुली गोद में सामूहिकता का भाव ऐसी बातें थी जिन्हें रूढ़ियों से ग्रस्त हमारा समाज कभी का पीछे छोड़ चुका है। एल्विन के जीवन का दिलचस्प प्रसंग उनकी एक आदिवासी लड़की कोसी से ब्याह था जो उनकी छात्रा रह चुकी थी। विवाह के समय एल्विन ३६ साल के थे और कोसी १४ साल की। उनके दो पुत्र हुए जवाहर और विजय, आठ साल के बाद एल्विन, कोसी से अलग हो गये, उन्होंने कोसी को अपने मित्र शामराव हिलारे के संरक्षण में छोड़ दिया।( कोसी को यह नहीं बताया गया कि हिलोरे भी अपनी पत्नी को तलाक दे चुके हैं)। उन्हें जबलपुर का अपना मकान दे दिया और २५ रुपए गुजारा भत्ता भी। लेकिन १९६४ में हुई एल्विन की मृत्यु के बाद हिलोरे ने कोसी की संपत्ति हड़प ली, उसने एल्विन की दूसरी पत्नी लीला का संपत्ति भी हड़प ली। कोसी अब बेहद विपन्नता की स्थिति में मंडला के एक छोटे से आदिवासी गांव में अपना अंतिम समय बीता रही है। यद्यपि एल्विन ने कोसी के साथ पूरा न्याय नहीं किया लेकिन उन्होंने नेहरू के जनजातीय सलाहकार के रूप में स्वतंत्र भारत सरकार की जनजातीय नीति के निर्माण में मील के पत्थर के रूप में काम किया। हाल ही में रामचंद्र गुहा द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी सैवेजिंग द सिविलाइजेशन- वेरियन एल्विन में उनके जीवन के बहुत से अनछूए पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है जो यह बताने की पूरी कोशिश करता है कि किस प्रकार पहले मिशनरी ने अपने को आदिवासी के रूप में बदलने की सफल कोशिश की

Thursday, September 10, 2009

गांधी की पोतियों के साथ ऐसे विवरण दिखाना कितना भ्रामक

अभी श्री बेरोजगार जी के ब्लाग पर नजर पड़ी। उन्होंने गांधी के ब्रह्मचर्य प्रयोग की आलोचना की है और उनकी ओशो से तुलना की है। उन्होंने अपने विषय से संबंधित तस्वीरें भी दी है जिसमें गांधी जी दो लड़कियों के साथ प्रार्थना सभा की ओर जा रहे हैं। कितनी हैरत की बात है इन तस्वीरों को गांधी जी के प्रयोगों से जोड़कर दिखाना। यह गांधीजी की पोतियां हैं और सच है कि उन्होंने प्रयोग इन्ही के साथ किया। मैं आपको बताऊंगा कि गांधी हमारी पीढ़ी की उन अंतिम लोगों में से शामिल रहे हैं जिन्होंने अपने सत्य को जीया पूरी प्रामाणिकता के साथ। ओशो ने कहा है और सच भी कहा है कि ब्रह्मचर्य के लिए पहले सेक्स में उतरना होगा। यह सच है लेकिन गांधी का सत्य भी अपनी जगह है। एक तरह से वह हमारे समय के नीत्शे थे। जिसे ओशो ने सेक्स के सागर में उतर कर पाया। गांधी ने वह सचाई के सागर में उतर कर पाया। उन पर पत्थर फैंकना बहुत आसान है दोस्तों लेकिन उनके निर्दोष प्रेम को और देश के पतित लोगों के प्रति समर्पित जीवन को आत्मसात करना बहुत मुश्किल है। वैसे गांधी भी आपको वैसे ही क्षमा कर रहे होंगे जैसे कभी ईसा ने अपने विरोधियों को किया था।

Tuesday, August 25, 2009

पार्टी विद डिफरेंस नहीं पार्टी विद डिफरेंसेस

भाजपा कभी पार्टी विद डिफरेंस का दावा करती थी और संघ परिवार के एक अनुशासित स्वयंसेवक की तरह सभी की जबानें सिली हुई होती थी। तब गोधरा भी हुआ और गुजरात दंगे भी। लेकिन किसी ने जुबान नहीं खोली। वाजपेयी ने जरूर कहा कि शासक को राजधर्म का पालन करना चाहिए लेकिन किसी एक नेता ने उनके पक्ष में नहीं कहा। आडवाणी ने मैटर्निख की तरह ही प्रतिक्रियावादी व्यवहार किया( वह ऐसा 20 सालों से कर रहे हैं। ) लेकिन कोई भी सामने नहीं आया, फिर आडवाणी ने रंग बदला, धर्म निरेपक्ष हुए और जिन्ना की बड़ाई की। फिर जसवंत का जिन्ना प्रेम जागा, इस बार बात थोड़ी अलग थी, जसवंत ने सरदार पटेल को कटघरे में खड़ा कर दिया और फिर अनुशासनहीनता की लाठी जसवंत पर पड़ी। पार्टी का दो मुंहा रंग तो जनता देख ही चुकी थी अब शौरी प्रकरण आया। और पार्टी पुनः चुपचाप। क्या हो गया है भाजपा को, दरअसल यह हार की खीज है और सबसे बड़ी विडंबना इस पार्टी के साथ यह है कि इनके पास अब अटल नहीं है वह हर जगह फिसल रही है आगे के लिये भी कोई विशेष आशा नहीं दिखती क्योंकि पार्टी के पास दूसरे दर्जे के तो लोग हैं अटल जैसा पहले दर्जे को कोई भी नेता नहीं।

Monday, July 20, 2009

चरित्र हत्या का यह खेल हिंदी में पुराना है...

हिंदी में चरित्र हत्या का खेल पुराना है केवल मोहरे बदल जाते हैं और कई बार तो यूं भी होता है कि बार-बार किसी एक ही चरित्र को बार-बार सजा दी जाती है उसके गुनाह ढूंढे जाते हैं और अभिमन्यू की तरह उसे घेर लिया जाता है चारों ओर से, उसके बचने की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी जाती, और विचारधारा के नाम पर उस पर अपनी सारी कुंठा उतार ली जाती है। उदयप्रकाश के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही हुआ है ऐसा बार-बार हुआ है यह उनकी ही पीड़ा नहीं है निराला से लेकर अज्ञेय और फिर निर्मल वर्मा तक हर लेखक को हिंदी की इस घटिया राजनीति का सामना करना पड़ा है। और हम हिंदी पट्टी को ही दोषी क्यों ठहरायें, विचारधारा के नाम पर हमेशा से हम अपने बड़े कवियों पर आरोप लगाते रहे हैं। वर्ड्सवर्थ का प्रसंग आपको याद होगा जब बायरन ने क्रांति का विरोधी होने पर उन्हें सोने के चंद सिक्कों की खातिर साथ छोड़ देने का आरोप लगाया था तब जबकि क्रांति बुरी तरह से अपने रास्ते से भटक गई थी। बिना सुनवाई के सजा देने का मामला साहित्य की पुरानी परंपरा रही है। हम कसाब जैसे हत्यारे को भी इस तरह से सजा नहीं देते तो अपने महान लेखकों को कटघरे में खड़े करने का हमें क्या अधिकार है। उदयप्रकाश से उनके कुछ प्रशंसक जो उनके लिखे को कल्ट की तरह मानने का दावा करते हैं अब यह पूछ रहे हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। क्या वह उनसे ऐसा पूछ सकते हैं। अगर हां, तो उदय झूठे नहीं हैं वह भाषा झूठी है जो केवल आध्यात्मिक क्षणों में अपने को अभिव्यक्त करती है और शेष क्षणों में लेखक अपने पुराने ढर्रे में लौट आता है। उदय पर आरोप लगाने से पहले हमें यह जरूर विचार करना चाहिए कि इन अध्यात्मिक क्षणों को जिये बगैर और उन्हें आत्मसात किये बगैर कोई लेखक अपनी भाषा में ऐसा देवत्व हासिल कर सकता है।

Friday, June 19, 2009

अमेरिका का उतरा या रूस का, चक्कर क्या है।

अमेरिका का उतरा या रूस का, क्या चक्कर है.
भारत के दो सबसे तेज न्यूज चैनल का दावा करने वाले आज तक और इंडिया टीवी में खबर आई है कि भारत की सीमा में एक कार्गो विमान घुस आया है। खबर के आगे देखिये, इंडिया टीवी विस्तार से बताता है कि विमान अमेरिका का है और इसके पायलेटों से घंटों बातचीत होने के बाद प्रशासन आश्वस्त हो गया है। उधर भारत का सबसे तेज चैनल आज तक बताता है कि रूसी विमान हमारी सीमा में घुस आया है। जो न्यूज चैनल यहां तक जानकारी रखते हैं कि सल्लू मियां ने ऐश्वर्या के बंगले के बगल से एक फ्लैट ले लिया है और शाइनी घटनाक्रम के तार झारखंड से जुड़े हैं क्या भारत की सिक्युरिटी के अहम मसले पर बिना तैयारी के ऐसा समाचार दे सकते हैं जो विरोधाभासी हो। दरअसल यह खबरों को परोसने का जमाना है, इंडिया टीवी की एन्कर कहती है कि आप जल्दी में हैं इसलिए हम आपको ट्वेंटी-ट्वेंटी स्टाईल में 20 खबरें संक्षिप्त रूप में बेहद जल्दी परोसेंगे। उधर आज तक के प्रभु चावला कहते हैं कि जब तक दो-तीन ब्रेकिंग न्यूज न सुन लूं , मेरा खाना नहीं पचता। तो अब यह मान लीजिए कि हमारा समय बदल गया है न्यूज हमारे लिए मनोरंजन है और जब तक इसमें कुछ नया नहीं घटेगा तब तक हमारे लिए यह ऊब से भरे सीरियलों का भी विकल्प नहीं देगा। मुझे लगता है कि चैनल तो टीआरपी का खेल करेंगे ही, जब तक प्रबुद्ध दर्शक हंस की तरह नीर-क्षीर का विवेक नहीं करेंगे तब तक मीडिया की गंभीर भूमिका कठिन ही है।

Saturday, June 6, 2009

मैने एक सपना देखा है।

सपने देखना अबूझ पहेली है मुझे लगता है कि हमारे रूटीन जीवन पर यह सार्थक हस्तक्षेप है। क्योंकि सपनों की दुनिया किसी बढ़िया फिल्म की स्क्रिप्ट की तरह होती है जहां हम जीवन को अलग से जी पाते हैं। चेखव कहते थे कि सपने देखना आपको कालातीत बनाता है। क्योंकि यह अवचेतन मन की दुनिया होती है अधिक परिष्कृत और यहां पर अक्सर आप वह कारनामें कर लेते हैं जिनके बारे में सोच भी पाना अपने निजी जीवन में संभव नहीं है। बात यह भी होती है कि सपनों में हम अपनी अधूरी आंकाक्षाओं को भी जीते हैं। मसलन अपना कोई प्रिय जो बरसों पहले बिछड़ गया, अचानक सपनों के माध्यम से अपने निजी जीवन में प्रवेश करता है और कई बार दुःस्वपन भी, जैसे मुझे सपना आता है कि अंतिम सेमेस्टर की परीक्षा में फिर से रूक गये हैं।

Thursday, April 30, 2009

मोदी सबित होंगे भारत के हिट्लर

मोदी को देश की जनता के बीच अपार लोकप्रियता मिल रही है मुझे लगता है कि वह भारत के हिटलर साबित होंगे, मोदी के उत्तेजक बयान उनकी उकसाने वांली भाषा, ऐसा लगता है जैसे किसी नाजी सभा में आ गये हैं सांप्रदयिक नेता जनता का चीरहरण कर रहे हैं और हम सब मौन हैं................

Wednesday, April 8, 2009

tare zameen par

famous journalist prabhash joshi once quote that if any one director of india deserve the prestigious oscar award than it goes to aamir khan. realy he is genius. one of the best work of him is tare zameen par. it sound great voice of aal of us whom suffer from dislexia. aamir created wonderful emotion in that movie. he compare child as a oas ke moti. yeh when we kids our natural desire is to do wonder in life. this film give us great spirit to live again.

Thursday, March 12, 2009

समय का खेल हारने के बाद कोई भी सफलता अर्थपूर्ण है

काफी निराशा झेलने के बाद उन्हें निराशा ही हाथ लगी और जब टूट गये तो सफलता ने उनके द्वार में दस्तक दी। मेरे एक सहयोगी ने मुझसे कहा कि टूटन भरे दौर में जब कहीं से कोई सहारा नहीं मिल रहा था उन्होंने हिम्मत नहीं हारी लेकिन सब कुछ पा लेने के बाद अजीब सा दर्द उनके अंदर समा गया है। उन्होंने मुझसे गीतांजलि की कविता शेयर की। दुख भरे क्षणों में नतमस्तक हो तेरे दर्शन तो करूं लेकिन दुख भरे क्षणों में जब सारी दुनिया मेरा उपहास करेगी तब शंकित न होऊं यही वरदान चाहता हूं। उनके लिए मैं क्या कर सकता हूं।

Tuesday, March 10, 2009

हिटलर की काली दुनिया

होली के पहले दिन जर्मन नरसंहार के बारे में पढ़ लिया। आश्वित्ज के कैंप में दुबले पतले लाखों लोगों को केवल मौत के घाट इसलिए उतार दिया गया क्योंकि वह दुर्भाग्य से यहूदी थे और उन लोगों ने व्यवसाय में सफलताएं अर्जित कर ली थी। कुछ लोग कहते हैं कि यहूदियों का चरित्र शाईलाक सा होता है मर्चेन्ट आफ वेनिस के व्यापारी सा, जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में खडूस कहते हैं। लेकिन फिर दूसरे पूंजीपतियों में क्या दोष होता है। कुछ सालों पहले मेरा एक छोटा भाई आया था मेरे घर। वह 10 वीं की परीक्षा में बैठा था और इतिहास में रूचि रखता था। उसने कहा कि वह मीन कैंफ खोज रहा है। मैंने पूछा क्यों, तुम गांधी को क्यों नहीं पढ़ते। उसने कहा कि गांधी ने भारत को आजादी दिलाई, इसमें भी मुझे शक है जबकि हिटलर ने तो अकेले दम पर ही दुनिया भर को हिला कर रख दिया। क्या हम अब भी अपनी इतिहास की किताबों में सिकंदर और चंगेज जैसे नायकों को शूरवीर बताकर महिमामंडित करते रहेंगे अथवा फिर से एक नई किताब लिखेंगे जहां पर हमारे धर्मग्रंथों की तरह हिटलर जैसे लोग राक्षसों की श्रेणी में रखे जायेंगे और इनसे कौम को बचाने वाले लोग भगवान का दर्जा पायेंगे।

Saturday, February 21, 2009

केवल दो तरह के ही लोग हैं

मुझे हमेशा से लगते रहा है कि दुनिया में केवल दो प्रकार के लोग हैं आस्तिक और नास्तिक। इनका विभाजन हम धर्म के सतही अर्थ में नहीं कर सकते अपितु इसके लिए हमें आस्था संबंधी उपकरण उपयोग करने होंगे। अगर ईश्वर या दिव्य शक्ति को हम अनुभव करते हैं तो हम आस्तिकता के किसी खास आधार को ही स्वीकार करने से हिचकेंगे। जैसाकि उपनिषदों में कहा गया है कि वह आंतरिक प्रकाश जो हमें सकारात्मक दिशा की ओर प्रेरित करता है। यह पहले प्रकार के लोग हैं दूसरे प्रकार के वह लोग जो केवल किसी खास प्रकार के धर्म के अस्तित्व में भरोसा करते हैं ऐसे लोग दिखावे के तौर पर अपने धर्म के प्रति बेहद कट्टरवादी दिख सकते हैं अपने अपने धर्मों के झंडाबरदार इसी तरह के दिखते हैं। लेकिन इनकी विडंबना यह है कि सच्चे धार्मिक बोध की अनुपस्थिति में यह एक अलग प्रकार की आग में जलते रहते हैं जिनकी रक्षा कोई भी धार्मिक ग्रंथ अथवा ईश्वर नहीं कर सकता। निर्मल वर्मा के शब्दों में कहें तो एक रुढ़िवादी की विडंबना यह है कि वह अपने धार्मक ग्रंथों से तो परिचित है लेकिन उसके लिए वह रूढ़ ही हैं क्योंकि वह प्रतीकों के असल अर्थ भूल चुका है। और आस्तिक वह जो अनुभवहीन स्मृति और स्मृतिहीन अनुभव में जीता है।

Thursday, February 19, 2009

साधू या शैतान.................

साधू या शैतान........................

साधुओं से मेरे अनुभव बहुत ही बुरे रहे हैं यहां तक कि अब मैं उनसे कभी नहीं मिलना चाहता, यहां एक बड़ा धार्मिक मेला लगा हुआ है। दादी के आग्रह करने पर मैं भी एक बाबा के आश्रम में चला गया। यहां पर मुझे बेहद अप्रिय अनुभव हुए। बाबा मुझसे आर्थिक स्थिति के बारे में पड़ताल करने लगा(लगे यूज नहीं कर रहा हूं क्योंकि वह साधू के भेष में शैतान था। घर की महिलाओं के बारे में उसकी दिलचस्पी से मैं बुरी तरह से व्यथित हो गया और गुस्से में बाहर आ गया। परिवार वाले नाराज हो गये कि इतने पहुंचे हुए बाबाजी का मैंने अपमान कर दिया। लेकिन धर्म के आड़ में अधर्म करने वाले इन ढोंगियों से अब कभी संवाद नहीं करने का फैसला मैंने किया है। थोड़ी दूर पर देखा, एक कोढ़ी जिसका अंग-अंग कोढ़ से गल गया था खून से लथपथ भीख मांग रहा था, मैंने जेब टटोली, केवल 10 के नोट थे तो मैं आगे बढ़ गया। तब मन में विचार आया कि कोढ़ग्रस्त भिखारियों के लिए हमारे पास केवल 1 या 2 रुपए होते हैं लेकिन ढोंग को बढ़ावा देने वाले इन साधुओं को गाली सुनने के बावजूद हम हजारों रुपए का दान कर देते हैं।