Monday, October 26, 2009

हम भस्मासुर नहीं हैं रहमान मलिक साहब

यह बेहद हास्यास्पद बात है कि पाकिस्तान भारत पर तालिबान की गतिविधियों को पाक में बढ़ाने का आरोप लगाये। इसकी साफ वजह है कि भारत की रूचि पड़ोसी देशों में राजनैतिक अस्थिरता फैलाने की नहीं रही है क्योंकि भारत का लोकतंत्र पड़ोसी देश की तरह घृणा फैलाकर राज चलाते रहने में यकीन नहीं करता क्योंकि हमारे हुक्मरानों को इसकी जरूरत नहीं है। इसका सीधा उदाहरण हमे एनडीए सरकार से मिलता है। एनडीए सरकार की विदेश नीति को काफी सख्त माना जाता था लेकिन इन्होंने भी पाकिस्तान की नीति पर संयम से काम लिया, कारगिल के बाद आगे नहीं बढ़े, यहां तक कि बांग्लादेश राइफल की क्रूरता के बावजूद भी विदेश नीति के पक्ष में संयम से काम लिया। इससे साफ झलकता है कि भले ही अन्य मुद्दों में राजनैतिक पार्टियां(भारत में) आक्रामक और कई बार गलत रवैया अख्तियार करती है लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर उपमहाद्वीप को अस्थिर करने की राजनीति नहीं हुई है। हमारे हुक्मरानों को मालूम है कि अगर हम अपने पड़ोसियों में राजनैतिक अस्थिरता फैलाते हैं आग लगाते हैं तो इसकी चिंगारी हम तक भी पहुंचेगी क्योंकि हम भस्मासुरी राजनीति का प्रभाव अपने पड़ोस में देख ही रहे हैं। पाक ने भारत को कमजोर करने जो आतंकी तंत्र खड़ा किया है अब वह ढांचा स्वयं पाक में अस्थिरता फैला रहा है। रहमान मालिक को यह समझना चाहिए कि उनकी नेता बेनजीर भुट्टो भी समझ चुकी थी कि पाकिस्तान की अस्थिरता का बड़ा कारण लंबे समय से भारत विरोधी प्रचार है। चाहे अयूब खां को लें अथवा जुल्फिकार अली भुट्टो को लें जिन्होंने भारत के खिलाफ 1000 साल तक जंग जारी रखने की बात कही थी, पाक के हुक्मरानों ने भारत के खिलाफ आतंक का तंत्र बनाकर अपने राष्ट्र को ही खतरे में डाल दिया है। इस विषवृक्ष के फल अब उनकी आने वाली पीढ़ियां भोग रही हैं। इसके बावजूद रहमान मलिक को यह समझ नहीं आ रहा है। जरदारी सरकार की स्थिति उस वैद्य की तरह है जो रोग का सही कारण तो समझ नहीं रहा है लेकिन अपनी साख बचाये रखने के लिए मरीज पर अंधाधुंध प्रयोग कर रहा है। भारत को मालूम है कि अगर वह पाकिस्तान को बचाये रखना चाहता है तो उसे तालिबान जैसे भयंकर विघटनकारी तत्वों को रोकना होगा।

Thursday, October 22, 2009

हिटलरशाही को बढ़ावा देने वाला जनादेश

विधानसभा चुनाव के नतीजे आज जैसे-जैसे आते गये, आम जनता में दो तरह की प्रतिक्रियाएं रही, एक तो तीनों राज्यों में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन को लेकर और दूसरे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को मुंबई में मिली सफलता को लेकर। कांग्रेस की सफलता एक तरह से लोकसभा चुनाव की अगली कड़ी मानी जा सकती है और लंबे हनीमून का हिस्सा भी, जो संभवतः तब तक चलता रहे जब तक प्रतिद्वंद्वी एनडीए की भीतरी रस्साकशी में कोई नेता उभर कर सामने न आये। मनसे की सफलता अधिक महत्वपूर्ण है यह सफलता पूरी तौर पर राज ठाकरे की है जिन्होंने साबित कर दिया है कि वह अपने चाचा बाला साहब ठाकरे के वास्तविक उत्तराधिकारी है। भले ही यह नतीजे बाला साहब के लिए काफी निराशा से भरे हों लेकिन इन्होंने साबित कर दिया कि जिस राजनीति को लेकर शिवसेना को ठाकरे ने जन्म दिया उसकी अहमियत अब भी कायम है। वही राजनीति जिसकी शुरूआत कार्टुनिस्ट ठाकरे ने मुंबई की गलियों में कन्नड़ भाषी जनता का विरोध कर आरंभ की थी जिसको ऊंचाई हिंदू गौरववाद जैसे भावनात्मक मुद्दे ने और पाकिस्तान के विरूद्ध उग्रराष्ट्रवाद ने दी। ठाकरे की थीम में सब कुछ था, हर तरह से उग्र, हुंकार भरने वाला। लेकिन जिन्हें राजनीति आती है वह जानते हैं कि भावनात्मक मुद्दे स्पंज की तरह होते हैं इन्हें केवल एक बार पसीजा जा सकता है दूसरी बार कोशिश करे तो कुछ नहीं। शिवसेना ने सत्ता सुख चखा था और प्रमोद महाजन जैसे सत्ता तंत्र के काफी निकट लोगों का सहयोग भी इसके लिए हासिल किया था। भावनात्मक मुद्दों से दिनचर्या के काम नहीं चलाये जा सकते ये महाराष्ट्र की जनता ने शिवसेना के कार्यकाल में देख लिया था तो ठाकरे की राजनीति के लिए स्पेस नहीं बचा था और उद्धव के लिए तो कुछ भी नहीं क्योंकि न तो वे शेर की तरह लगते हैं और न ही उस तरह से गुर्रा सकते हैं। वैसे उनके चचेरे भाई और अब कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन चुके राज शेर की तरह लगते हैं और इसकी तरह गुर्राते भी हैं(भले ही वह असली जिंदगी में उनके भीतर शेर का जिगर हो या नहीं) । राज ने साबित कर दिया है कि ठाकरे ने पुत्रमोह में भले ही उन्हें सत्ता सुख से वंचित कर दिया हो लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र में शिवसेना की सत्ता में गलत घोड़े पर दांव लगाने की गलती तो कर ही दी है।
राज की अभूतपूर्व सफलता ने कुछ सवाल उठाये हैं विशेषकर कुछ महीने पूर्व हुए लोकसभा के जनादेश के संबंध में किये जा रहे दावों पर। लोकसभा के नतीजों की व्याख्या करते हुए कहा गया था कि भारतीय मतदाता काफी समझदार हो गया है अब वह जातिवाद, संप्रदायवाद और क्षेत्रीयतावाद के नारों से उब चुका है और परिपक्व राजनीति की ओर आगे बढ़ रहा है। गौरतलब है कि इन चुनावों में राज ठाकरे की तरह का एक चेहरा पीलीभीत से चुनाव लड़ रहा था जिसका नाम था वरूण गांधी। जनादेश 2009 को एक तरह से राहुल की सौम्यता और वरूण की उग्रता के बीच की जंग के रूप में भी देखा गया था और लोगों ने कहा कि राहुल की जीत हुई है। जैसाकि ऊपर कहा गया कि विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के चल रहे सुखांत नाटक की अगली कड़ी का हिस्सा भर थे। राज ठाकरे की सफलता बताती है कि क्षेत्रीयतावाद जैसे मसले भारतीय राजनीति में अब भी अहम हैं और इससे वोट पड़ते हैं। दुख की बात है कि भारत की वित्तीय और सांस्कृतिक राजधानी से ऐसा जनादेश आ रहा है जो ऐसे व्यक्ति की पैरोकारी कर रहा है जो मराठी अस्मिता के नाम पर गालीगलौच का इस्तेमाल कर रहा है। दुख की बात यह भी है कि मुंबई ने सबसे ज्यादा महत्व उस व्यक्ति को दिया जो तब अपनी मांद में बैठा रहा जब आतंकवादी मुंबई की छाती को छलनी कर रहे थे।
राज की विधानसभा चुनावों में आशातीत सफलता को सीटों के लिहाज से कम नहीं आंकना चाहिए। हमे याद रखना चाहिए कि हिटलर की नाजी पार्टी को भी पहले चुनाव में 12 सीटें मिली थी और इसके बाद इनका आंकड़ा निरंतर बढ़ते ही गया था। राज ठाकरे को बढ़ाने में केवल वह लोग दोषी नहीं हैं जो क्षेत्रीयतावाद के खतरे को कम करके आंक रहे हैं इसके लिए वह भी दोषी हैं जो इसकी कर्कश आवाज को सुनकर भी कानों में ऊंगली डाले बैठें हैं।
ऐसे लोगों के लिए ही दिनकर ने कुरूक्षेत्र में लिखा है कि
“ समर शेष है रण का भागी केवल नहीं व्याघ्र, जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध

Thursday, October 8, 2009

वेरियर एल्विन जो मिशनरी से आदिवासी बने


दुनिया भर में मिशनरी समाज ने भले ही पुरानी सांस्कृतिक मान्यताओं में हस्तक्षेप कर उन्हें तोड़ा हो लेकिन उन्हें ही पहली बार श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने अब तक अनछुयी धरती के हजारों रंगों को हमारे सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने हमे दुनिया के ऐसे हिस्से दिखाये जहां हम अपने सबसे पुराने समय को और उस समय के व्यवहारों को जान सकते थे। संभवतः रूसो अगर अठारहवीं सदी की बजाय उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए होते तो उन्हें अपने कल्पित संसार का वास्तविक नजारा देखने मिलता। मिशनरियों की यह प्रक्रिया शुरू हुई सेंट टामस जैसे यात्रियों से जिन्होंने स्पाइस रूट को पहली बार धार्मिक मिशन के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन दरअसल सही मायने में आदिवासी संस्कृति के सबसे करीब हमे ले गये राबर्ट लिविंगस्टोन जैसे यात्री, जिनमें मिशनरी उत्साह तो था ही, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रंगों से भी गहरा लगाव था। लेकिन यह आलेख मिशनरियों के दुनिया की खोज को सामने लाने नहीं लिखा गया है यह आलेख तो ऐसे मिशनरी के बारे में है जिसने अपना मिशन ही बदल दिया। वेरियन एल्विन जो सुदूर अंधमहासागर के सियरा लियोन में धर्मप्रचार कर रहे एक पादरी के बेटे थे, भारत में धर्म प्रचार करने पहुंचे। एल्विन सही मायने में ईसा के उपदेशों को जीने वाले लोगों में से थे और इसके लिए स्वाभाविक रूप से भारत आने पर वह गांधी के करीब आये जो मेरे विचार से २०वीं सदी में ईसा के आदर्श को जीने वाले चुनींदा लोगों में से थे। एल्विन के व्यक्तित्व की बनावट दुनिया में पैदा होने वाले उन थोड़े से लोगों में से थी जो उद्दाम नही के किनारे केवल नजारा देखना पसंद नहीं करते, वह उसमें उतरते हैं और नदी के भीतर की अशांत हलचल उनके भी जीवन का हिस्सा बन जाती है। दिलचस्प बात यह है कि एल्विन भारत में आदिवासी संस्कृति का धार्मिक रूपांतरण करने आये थे, ऐसे लोग जो उनके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग थे, हमेशा से शांत रहने वाले, दुर्गम घाटियों की खोह में सदियों से एक जैसा जीवन जीने वाले।
हो सकता है कि एल्विन अपने साथ वैसा ही सिद्धांत लेकर आये हों जैसा किपलिंग ने भारत के लिए सभ्य जाति का बोझ जैसा तथाकथित उदार मुहावरा प्रस्तुत किया था। लेकिन आदिवासियों के बीच रह कर एल्विन को लगा कि इनके आचार-विचार और जीवन दर्शन हमारे सभ्य समाज से कहीं बेहतर है और हम जो इन्हें अपने आदर्श सिखाने आये हैं कितने बेमानी विचार रखते आये थे। एल्विन मानवविज्ञानी नहीं थे लेकिन उनकी गोड़ जनजाति पर लिखी किताबें उनके इस विषय पर असाधारण ज्ञान और समझ की परिचायक हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान एल्विन को लगा कि भीतर से वह भी कहीं न कहीं आदिवासी हैं और जब ऐसा हुआ तो स्वाभाविक था कि चर्च के विरोध का सामना करना पड़ता। एल्विन ने हम भारतीयों को भी पहली बार ऐसी दुनिया से परिचित कराया जिनके इतने निकट रहते हुए भी हम इस तरह से परिचित नहीं थे। यद्यपि भारत में वर्णव्यवस्थाओं की कठोरता के बावजूद हिंदू समाज का जनजातीय समाज से स्नेहपूर्ण संबंध रहा है आप कालिदास से लेकर तुलसी के साहित्य तक इसका दर्शन कर सकते हैं। एल्विन ने गोड़ जनजाति के बीच अपना लंबा समय गुजारा और इसके बाद उनकी बहुचर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई, मुड़िया एंड देयर घोटुल। इसका प्रकाशन भारत में क्रांतिकारी थी, भारतीयों के लिए भी अंग्रेजों के लिए भी। (यह बिल्कुल विवेकानंद के शिकागो भाषण की तरह आंखे खोलने वाला था जिसके बारे में न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा था कि हम ऐसे देश में धर्मप्रचार और सभ्यता की बातें करते हैं जो प्रज्ञा की जननी है, विवेकानंद को सुनकर हमें लगता है कि हम कितने गलत था)। घोटुल के भीतर का निर्दोष वातावरण, यहां रहकर स्त्री-पुरूषों को समानता के वातावरण में साथी का वरण और प्रकृति की खुली गोद में सामूहिकता का भाव ऐसी बातें थी जिन्हें रूढ़ियों से ग्रस्त हमारा समाज कभी का पीछे छोड़ चुका है। एल्विन के जीवन का दिलचस्प प्रसंग उनकी एक आदिवासी लड़की कोसी से ब्याह था जो उनकी छात्रा रह चुकी थी। विवाह के समय एल्विन ३६ साल के थे और कोसी १४ साल की। उनके दो पुत्र हुए जवाहर और विजय, आठ साल के बाद एल्विन, कोसी से अलग हो गये, उन्होंने कोसी को अपने मित्र शामराव हिलारे के संरक्षण में छोड़ दिया।( कोसी को यह नहीं बताया गया कि हिलोरे भी अपनी पत्नी को तलाक दे चुके हैं)। उन्हें जबलपुर का अपना मकान दे दिया और २५ रुपए गुजारा भत्ता भी। लेकिन १९६४ में हुई एल्विन की मृत्यु के बाद हिलोरे ने कोसी की संपत्ति हड़प ली, उसने एल्विन की दूसरी पत्नी लीला का संपत्ति भी हड़प ली। कोसी अब बेहद विपन्नता की स्थिति में मंडला के एक छोटे से आदिवासी गांव में अपना अंतिम समय बीता रही है। यद्यपि एल्विन ने कोसी के साथ पूरा न्याय नहीं किया लेकिन उन्होंने नेहरू के जनजातीय सलाहकार के रूप में स्वतंत्र भारत सरकार की जनजातीय नीति के निर्माण में मील के पत्थर के रूप में काम किया। हाल ही में रामचंद्र गुहा द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी सैवेजिंग द सिविलाइजेशन- वेरियन एल्विन में उनके जीवन के बहुत से अनछूए पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है जो यह बताने की पूरी कोशिश करता है कि किस प्रकार पहले मिशनरी ने अपने को आदिवासी के रूप में बदलने की सफल कोशिश की