Thursday, October 8, 2009

वेरियर एल्विन जो मिशनरी से आदिवासी बने


दुनिया भर में मिशनरी समाज ने भले ही पुरानी सांस्कृतिक मान्यताओं में हस्तक्षेप कर उन्हें तोड़ा हो लेकिन उन्हें ही पहली बार श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने अब तक अनछुयी धरती के हजारों रंगों को हमारे सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने हमे दुनिया के ऐसे हिस्से दिखाये जहां हम अपने सबसे पुराने समय को और उस समय के व्यवहारों को जान सकते थे। संभवतः रूसो अगर अठारहवीं सदी की बजाय उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए होते तो उन्हें अपने कल्पित संसार का वास्तविक नजारा देखने मिलता। मिशनरियों की यह प्रक्रिया शुरू हुई सेंट टामस जैसे यात्रियों से जिन्होंने स्पाइस रूट को पहली बार धार्मिक मिशन के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन दरअसल सही मायने में आदिवासी संस्कृति के सबसे करीब हमे ले गये राबर्ट लिविंगस्टोन जैसे यात्री, जिनमें मिशनरी उत्साह तो था ही, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रंगों से भी गहरा लगाव था। लेकिन यह आलेख मिशनरियों के दुनिया की खोज को सामने लाने नहीं लिखा गया है यह आलेख तो ऐसे मिशनरी के बारे में है जिसने अपना मिशन ही बदल दिया। वेरियन एल्विन जो सुदूर अंधमहासागर के सियरा लियोन में धर्मप्रचार कर रहे एक पादरी के बेटे थे, भारत में धर्म प्रचार करने पहुंचे। एल्विन सही मायने में ईसा के उपदेशों को जीने वाले लोगों में से थे और इसके लिए स्वाभाविक रूप से भारत आने पर वह गांधी के करीब आये जो मेरे विचार से २०वीं सदी में ईसा के आदर्श को जीने वाले चुनींदा लोगों में से थे। एल्विन के व्यक्तित्व की बनावट दुनिया में पैदा होने वाले उन थोड़े से लोगों में से थी जो उद्दाम नही के किनारे केवल नजारा देखना पसंद नहीं करते, वह उसमें उतरते हैं और नदी के भीतर की अशांत हलचल उनके भी जीवन का हिस्सा बन जाती है। दिलचस्प बात यह है कि एल्विन भारत में आदिवासी संस्कृति का धार्मिक रूपांतरण करने आये थे, ऐसे लोग जो उनके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग थे, हमेशा से शांत रहने वाले, दुर्गम घाटियों की खोह में सदियों से एक जैसा जीवन जीने वाले।
हो सकता है कि एल्विन अपने साथ वैसा ही सिद्धांत लेकर आये हों जैसा किपलिंग ने भारत के लिए सभ्य जाति का बोझ जैसा तथाकथित उदार मुहावरा प्रस्तुत किया था। लेकिन आदिवासियों के बीच रह कर एल्विन को लगा कि इनके आचार-विचार और जीवन दर्शन हमारे सभ्य समाज से कहीं बेहतर है और हम जो इन्हें अपने आदर्श सिखाने आये हैं कितने बेमानी विचार रखते आये थे। एल्विन मानवविज्ञानी नहीं थे लेकिन उनकी गोड़ जनजाति पर लिखी किताबें उनके इस विषय पर असाधारण ज्ञान और समझ की परिचायक हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान एल्विन को लगा कि भीतर से वह भी कहीं न कहीं आदिवासी हैं और जब ऐसा हुआ तो स्वाभाविक था कि चर्च के विरोध का सामना करना पड़ता। एल्विन ने हम भारतीयों को भी पहली बार ऐसी दुनिया से परिचित कराया जिनके इतने निकट रहते हुए भी हम इस तरह से परिचित नहीं थे। यद्यपि भारत में वर्णव्यवस्थाओं की कठोरता के बावजूद हिंदू समाज का जनजातीय समाज से स्नेहपूर्ण संबंध रहा है आप कालिदास से लेकर तुलसी के साहित्य तक इसका दर्शन कर सकते हैं। एल्विन ने गोड़ जनजाति के बीच अपना लंबा समय गुजारा और इसके बाद उनकी बहुचर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई, मुड़िया एंड देयर घोटुल। इसका प्रकाशन भारत में क्रांतिकारी थी, भारतीयों के लिए भी अंग्रेजों के लिए भी। (यह बिल्कुल विवेकानंद के शिकागो भाषण की तरह आंखे खोलने वाला था जिसके बारे में न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा था कि हम ऐसे देश में धर्मप्रचार और सभ्यता की बातें करते हैं जो प्रज्ञा की जननी है, विवेकानंद को सुनकर हमें लगता है कि हम कितने गलत था)। घोटुल के भीतर का निर्दोष वातावरण, यहां रहकर स्त्री-पुरूषों को समानता के वातावरण में साथी का वरण और प्रकृति की खुली गोद में सामूहिकता का भाव ऐसी बातें थी जिन्हें रूढ़ियों से ग्रस्त हमारा समाज कभी का पीछे छोड़ चुका है। एल्विन के जीवन का दिलचस्प प्रसंग उनकी एक आदिवासी लड़की कोसी से ब्याह था जो उनकी छात्रा रह चुकी थी। विवाह के समय एल्विन ३६ साल के थे और कोसी १४ साल की। उनके दो पुत्र हुए जवाहर और विजय, आठ साल के बाद एल्विन, कोसी से अलग हो गये, उन्होंने कोसी को अपने मित्र शामराव हिलारे के संरक्षण में छोड़ दिया।( कोसी को यह नहीं बताया गया कि हिलोरे भी अपनी पत्नी को तलाक दे चुके हैं)। उन्हें जबलपुर का अपना मकान दे दिया और २५ रुपए गुजारा भत्ता भी। लेकिन १९६४ में हुई एल्विन की मृत्यु के बाद हिलोरे ने कोसी की संपत्ति हड़प ली, उसने एल्विन की दूसरी पत्नी लीला का संपत्ति भी हड़प ली। कोसी अब बेहद विपन्नता की स्थिति में मंडला के एक छोटे से आदिवासी गांव में अपना अंतिम समय बीता रही है। यद्यपि एल्विन ने कोसी के साथ पूरा न्याय नहीं किया लेकिन उन्होंने नेहरू के जनजातीय सलाहकार के रूप में स्वतंत्र भारत सरकार की जनजातीय नीति के निर्माण में मील के पत्थर के रूप में काम किया। हाल ही में रामचंद्र गुहा द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी सैवेजिंग द सिविलाइजेशन- वेरियन एल्विन में उनके जीवन के बहुत से अनछूए पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है जो यह बताने की पूरी कोशिश करता है कि किस प्रकार पहले मिशनरी ने अपने को आदिवासी के रूप में बदलने की सफल कोशिश की

1 comment:

अफ़लातून said...

वेरियर एल्विन के बारे में ब्लॉग पढ़कर अच्छा लगा।गांधी के सहयोगियों के बारे में वेरियर एल्विन के लेख पढ़े थे ।राम गुहा की इस किताब के बारे में और बताइए ।
हृदय से धन्यवाद ।