Saturday, September 10, 2011

ज्योति कलश छलके


ज्योति कलश छलके \- ४
हुए गुलाबी, लाल सुनहरे
रंग दल बादल के
ज्योति कलश छलके

घर आंगन वन उपवन उपवन
करती ज्योति अमृत के सींचन
मंगल घट ढल के \- २
ज्योति कलश छलके

पात पात बिरवा हरियाला
धरती का मुख हुआ उजाला
सच सपने कल के \- २
ज्योति कलश छलके

ऊषा ने आँचल फैलाया
फैली सुख की शीतल छाया
नीचे आँचल के \- २
ज्योति कलश छलके

ज्योति यशोदा धरती मैय्या
नील गगन गोपाल कन्हैय्या
श्यामल छवि झलके \- २
ज्योति कलश छलके

अम्बर कुमकुम कण बरसाये
फूल पँखुड़ियों पर मुस्काये
बिन्दु तुहिन जल के \- २
ज्योति कलश छलके

Wednesday, September 7, 2011

Abraham Lincoln's World Famous Letter to his Son's Teacher



He will have to learn, I know,
that all men are not just,
all men are not true.
But teach him also that
for every scoundrel there is a hero;
that for every selfish Politician,
there is a dedicated leader…
Teach him for every enemy there is a friend,

Steer him away from envy,
if you can,
teach him the secret of
quiet laughter.

Let him learn early that
the bullies are the easiest to lick…
Teach him, if you can,
the wonder of books…
But also give him quiet time
to ponder the eternal mystery of birds in the sky,
bees in the sun,
and the flowers on a green hillside.

In the school teach him
it is far honourable to fail
than to cheat…
Teach him to have faith
in his own ideas,
even if everyone tells him
they are wrong…
Teach him to be gentle
with gentle people,
and tough with the tough.

Try to give my son
the strength not to follow the crowd
when everyone is getting on the band wagon…
Teach him to listen to all men…
but teach him also to filter
all he hears on a screen of truth,
and take only the good
that comes through.

Teach him if you can,
how to laugh when he is sad…
Teach him there is no shame in tears,
Teach him to scoff at cynics
and to beware of too much sweetness…
Teach him to sell his brawn
and brain to the highest bidders
but never to put a price-tag
on his heart and soul.

Teach him to close his ears
to a howling mob
and to stand and fight
if he thinks he’s right.
Treat him gently,
but do not cuddle him,
because only the test
of fire makes fine steel.

Let him have the courage
to be impatient…
let him have the patience to be brave.
Teach him always
to have sublime faith in himself,
because then he will have
sublime faith in mankind.

This is a big order,
but see what you can do…
He is such a fine little fellow,
my son!

Saturday, July 16, 2011

महंत के बुलंद सितारे खिलाएँगे प्रदेश कांग्रेस में गुल

महंत को दिल्ली में ताज मिला है, इकलौते सांसद होने के नाते उनका रूतबा पार्टी में पहले ही बड़ा था, अब उनका कद और भी बढ़ गया है। जाहिर है कि इससे पहले ही गुटीय द्वंद्व में फंसी कांग्रेस में अंतर्विरोध और भी गहराएँगे। शक्ति के हिसाब से देखें तो फिलहाल प्रदेशाध्यक्ष के रूप में नंदकुमार पटेल और नेताप्रतिपक्ष रविंद्र चौबे भी अपना बाहुबल दिखाने में लगे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का गुट सक्रिय है इसी प्रकार शुक्ल गुट के लोग भी खोई जमीन तलाशने में लगे हैं।
महंत की ताजपोशी से दिलचस्प संभावनाएँ पैदा होंगी, जोगी को प्रदेश की राजनीति में अलग-थलग करने के प्रयास और तेज हो जाएंगे। बीते दिनों महंत की बढ़ती राजनीतिक महत्वाकाँक्षाओं के चलते जोगी गुट से संघर्ष तेज हो गए थे और संगठन चुनावों के दौरान इसकी बानगी भी देखने को मिली थी। महंत ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए जाँजगीर-चाँपा से लगे हुए क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी।
महंत के गद्दीनशीन होने के बाद दोनों के बीच संघर्ष और गहराने की आशंका है। हाल तक कांग्रेस में जोगी गुट काफी शक्तिशाली था, किसी विधायक को अगर जोगी गुट का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया तो उसके लिए चुनावी नैया पार करना मुश्किल था। अब महंत गुट भी शक्तिशाली उभरेगा, आपसी रस्साकशी और बढ़ेगी। इससे हो सकता है कि कांग्रेस का संकट और गहरा जाए। जैसाकि कवासी लखमा के मामले में हुआ, जोगी गुट के खुलकर मैदान में आ जाने से दंडकारण्य में उनके कट्टर विरोधी नेता लखमा का अंदरूनी तौर पर जोर-शोर से विरोध करने लगे। इसका खामियाजा लखमा को भुगतना पड़ा। शक्तिशाली होते जा रहे महंत गुट से आपसी असहयोग के और गहराने की आशंका है।
कांग्रेस में जो तीसरा दिलचस्प समीकरण बन रहा है वो नंदकुमार पटेल का प्रदेशाध्यक्ष बना है। धनेन्द्र सक्रिय थे लेकिन बार-बार मिलने वाली असफलताओं ने उन्हें थका दिया था और उनके नेतृत्व में भविष्य में किसी लड़ाई में सफल हो पाने की संभावनाएँ भी कमजोर हो गई थीं। अब पटेल नई ऊर्जा से पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं उन्होंने प्रदेश सरकार के खिलाफ व्यापक मोर्चा खोला है। कार्यकर्ता उनके कार्यकाल में उत्साहित हैं। वे कभी जोगी के निकटस्थ सिपहसालारों में गिने जाते थे, लेकिन बढ़ती महत्वाकाँक्षाओं ने दोनों के बीच खाई जैसी बना दी है। पटेल कांग्रेस को अपने इर्द-गिर्द चलाना चाहते हैं पिछड़े वर्ग से होने के कारण इस वर्ग का साथ तो उन्हें है ही, पृथक बस्तर की माँग उछाल कर उन्होंने बस्तर में अपनी जमीन मजबूत बनाने का प्रयास किया है। इससे जोगी खुलकर उनके विरोध में आए। अपनी जमीन को तलाश करने पटेल जितना आगे जाएँगे, कांग्रेस में गुटीय संघर्ष और गहराएगा।
इतने अंतर्विरोधी से घिरी पार्टी अगर सत्ता में आ गई तो यह बिल्कुल चमत्कार जैसा होगा। अगर यह चमत्कार हुआ तो भी दिलचस्प समीकरण होंगे। सबसे कद्दावर नेता होने के नाते जोगी अपनी दावेदारी करेंगे ही, इसके लिए पर्याप्त संख्या में अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की कोशिश करेंगे। महंत के लिए उन्हें रोक पाना काफी मुश्किल होगा क्योंकि लगभग दो दर्जन जोगी समर्थक अपने इलाकों में काफी शक्तिशाली हैं और उन्हें उपेक्षित करना आलाकमान के लिए संभव नहीं होगा। अगर पार्टी जोगी को स्टार कैंपनेर नहीं बनाती है तो उनके करिश्मे का लाभ उठाने से पार्टी चूक जाएगी। अगर बनाती है तो जोगी इसे कैश करना चाहेंगे। वहीं महंत अपने इकलौते सांसद होने व मंत्री होने के नाते अपना दावा प्रमुखता से रखेंगे। पटेल पार्टी को संजीवनी देने के अपने प्रयासों का जिक्र करेंगे और रविंद्र चौबे विधानसभा में प्रखर विरोध के लिए अपना दावा प्रबल करेंगे। अंतिम दो नेताओं की साफसुथरा छवि उनके पक्ष में हो सकती है क्योंकि रमन की स्वच्छ छवि और सौम्यता को टक्कर देने का माद्दा इन्हीं दो नेताओं में है।

Monday, June 20, 2011

पीढ़ियों का मतभेद


युवा वर्ग उत्साही होता है वह खुले आसमान में उड़ने का आनंद लेना चाहता है उसकी महत्वाकांक्षाओं की मानो कोई परिधि ही नहीं होती। बुजुर्ग खुले आसमान में उड़ने का जोखिम जानते हैं क्योंकि उन्होंने भी जवानी में ऐसे ही प्रयास किये थे और अक्सर इन प्रयासों का नतीजा गहरी विफलता में मिला। वह चाहते हैं कि युवा धीमे-धीमे, संतुलित और रणनीतिक तरीके से अपनी मंजिलें प्राप्त करें। बुजुर्गों द्वारा अपनाई जाने वाली अतिरिक्त सावधानी और युवा वर्ग का अपरिमित और जोखिम भरा जोश अक्सर दोनों पीढ़ियों के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा करता है और इसका नतीजा आता है पीढ़ियों के मतभेद के रूप में जिसे हम अंग्रेजी में जनरेशन गेप भी कहते हैं। यह मतभेद अक्सर मामूली विवाद के रूप में शुरू होते हैं लेकिन अगर इसे सही तरीके से समझा नहीं गया तो पीढ़ियों के बीच की दरार कुछ ही समय में खाई के रूप में बदल जाती है जिसे पाट पाना प्रायः असंभव होता है।
पीढ़ियों का मतभेद हमारे समय की सच्चाई है वैसे तो यह हमेशा से मौजूद रहा है लेकिन 21 वीं सदी में जिस तेजी से बदलाव आते जा रहे हैं यह संकट और भी गहरा गया है। दरअसल 21 वीं सदी में हम वैश्वीकरण से बहुत अधिक प्रभावित हो रहे हैं हमारे सोचने के ढंग में पाश्चात्य प्रभाव तेजी से शामिल हो रहे हैं विशेषकर युवा पीढ़ी जो कान्वेंट शिक्षित है परंपरा से कट रही है। वह उन्मुक्त विचार शैली पसंद करती है वह हिचक तोड़ रही है और कई बार वह ऐसे विचारों को भी प्रकट कर रही है जो परंपरा के पोषकों को कतई रास नहीं आते। नई पीढ़ी की जीवन-शैली भी बदली है। महंगे रेस्टारेंट में देर तक चलने वाले डिनर, पार्टियों में जमकर किया जाने वाला नाच-गाना और इन महफिलों को और भी रंगीन बनाने के लिये वाइन का प्रयोग, यह हमारे समय की सच्चाई है और यह केवल महानगरों तक सिमटी नहीं है छोटे शहरों में भी यह चलन तेजी से बढ़ा है। गांवों की बात करें तो यहां भी युवा पीढ़ी तेजी से शराबखोरी का शिकार हो चली है। इसका बड़ा कारण 21वीं सदी में आई समृद्धि भी है। अधिकांश परिवारों की आय केवल रोटी-कपड़ा जुटाने तक सीमित नहीं है उनके पास अतिरिक्त आय आई है और स्वाभाविक रूप से इसका कुछ हिस्सा उनके बच्चों तक भी पहुंचता है। जब अतिरिक्त पैसे जेब में हो तो करियर संबंधी चिंताएं भी कम हो जाती हैं और मन भी स्वाभाविक रूप से बुराईयों की ओर भटकता है तो ऐसे में 21वीं सदी में अगर नई पीढ़ी में मूल्यों की कमी आई है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। अभिभावक अपने बच्चों को बुराईयों के इस जाल से बाहर निकालना चाहते हैं वह इन पर दबाव बढ़ाते चलते हैं और इसका नतीजा होता है कि बच्चों के मन में अपने अभिभावकों के प्रति विद्रोह बढ़ता चला जाता है। दूरियां और बढ़ती चली जाती हैं और कोई भी समझ नहीं पाता कि कैसे इन मतभेदों को दूर किया जाये।
महंगी गाड़ियां, महंगे मोबाइल सेट और मंहगे कपड़े, यह नई जीवन-शैली की दरकार है। आपकी प्रतिष्ठा इस बात से जानी जाती है कि आपके पास कितना अच्छा मोबाइल है, आपके कपड़े किस ब्रांड की कंपनी के हैं और आप कैसी गाड़ी ड्राइव करते हैं। जाहिर है कि इसमें युवा चूहा-दौड़ में शामिल हो जाते हैं। अगर उनके पास यह साधन नहीं है तो वह इन्हें जुटाने के लिये अपने अभिभावकों से जिद करते हैं। अगर यह साधन हों भी तो इनसे बेहतर और महंगे उपकरणों की दरकार होती है जाहिर है कि यह कभी संतुष्ट न होने वाली इच्छाएं हैं। अभिभावक अगर इन्हें पूरा करते हैं तो और भी बड़ी इच्छाएं उनके समक्ष रख दी जाती हैं अगर वह इन्हें न पूरा करें तो युवा पीढ़ी में असंतोष गहरा जाता है।
अगर अभिभावक उनकी इच्छा पूरी न करें तो युवाओं के पास दो ही रास्ते रह जाते हैं पहला तो वह अपराध की दिशा में मुड़ जाते हैं अथवा वह ऐसे करियर का चुनाव करते हैं जहां उन्हें अपरिमित विकास की संभावनाएं दिखती हों। करियर के चुनाव को लेकर कई बार युवावर्ग अभिभावकों से उलझ जाता है। अक्सर अभिभावक चाहते हैं कि बच्चें उन्हीं विषयों का चयन करें जिनसे बेहतर नौकरी मिलने की आशा हो, यहां वह अपने बच्चों की रूचि नहीं देखते। होता यह है कि बच्चे उन विषयों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते जो उनकी रूचि के नहीं होते हैं। इससे बच्चे अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं के बोझ के नीचे दबते जाते हैं और अंततः विद्रोह कर देते हैं। कई बार यह भी होता है कि बच्चा किसी भी विषय में रूचि नहीं दिखाता लेकिन ललित कलाओं जैसे पेंटिंग, संगीत और नृत्य में बेहतर प्रदर्शन करता है। उसे लगता है कि वह इन क्षेत्रों में अपना करियर बना सकता है लेकिन अधिकतर अभिभावक रूढ़िवादी होते हैं और अपने बच्चों को ऐसे क्षेत्रों में करियर बनाने हतोत्साहित करते हैं। कुछ बच्चे पढ़ाई में अच्छे नहीं होते लेकिन खेलों में बहुत अच्छे होते हैं। ऐसे मामलों में भी अभिभावक बच्चों को हतोत्साहित कर देते हैं जैसाकि हमारे यहां पुरानी कहावत है कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे होशियार, खेलोगे कूदोगे तो बनोगे गंवार। चूंकि करियर से ही भविष्य जुड़ा होता है अतएव इस मामले में उत्पन्न मतभेद पीढ़ियों के संघर्ष को लंबे समय तक बनाये रहते हैं।
पीढ़ियों के बीच मतभेद स्वाभाविक हैं और स्वाभाविक तरीकों से इन्हें हल भी किया जा सकता है। इसके लिये विभिन्न परिस्थितियों के प्रति सजगता बनाये रखने की आवश्यकता मात्र होती है। सबसे पहले अभिभावकों को चाहिये कि वह ऐसी परिस्थिति उत्पन्न ही न होने दे जिससे बच्चों के मन में असंतोष जागे। यह तभी संभव है जब बचपन से ही बच्चे को उचित संस्कार दिये जायें, उनके भीतर जिम्मेदारी का बोध जगाया जाये और उनके सहज विकास को प्रेरित किया जाये। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं उन्हें ढालकर कैसा भी रूप दिया जा सकता है। यह युवा वर्ग के साथ संभव नहीं होता, जवानी की दहलीज पर कदम रखने तक युवा के भीतर कुछ विचार बद्ध रूप धारण कर लेते हैं इसका मतलब यह है कि युवा अपने विचारों का निर्माण कर चुका होता है और इनमें परिवर्तन की गुंजाइश कम ही होती है। ऐसी स्थिति में अभिभावकों द्वारा दबाव डालने पर स्थिति विस्फोटक हो सकती है।
स्कूल बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हैं लेकिन यह पूरी पढ़ाई का सीमित अंश ही होता है। इसके चलते नैतिक शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी अभिभावकों पर होती है। अगर वह चाहते हैं कि उनके और बच्चों के बीच भविष्य में जनरेशन गेप जैसी स्थिति न बने तो उन्हें अपने बच्चों को परंपरा का महत्व सिखाना होगा। उन्हें अपने अतीत पर गौरव करना सिखाना होगा और इसके लिये उन्हें अतीत की जानकारी देनी होगी। विडंबना यह है कि अधिकांश अभिभावक स्वयं परंपरा का महत्व नहीं जानते, वह केवल इनसे चिपके रहते हैं ऐसे में वह अपने बच्चों से अगर इसके पालन की आशा करें तो मतभेद की स्थिति उत्पन्न होगी ही। वह पीढ़ी जो आने वाली पीढ़ी से संस्कारी होने की आशा करती है उसे स्वयं इन संस्कारों को जीना होगा। होता यह है कि अभिभावक अपने बच्चों से पढ़ने-लिखने की आशा करते हैं लेकिन स्वयं उनके व्यक्तिगत जीवन में यह बात अनुपस्थित रहती है। वह बच्चों को तो टेलीविजन देखने से रोकते हैं लेकिन खुद ही इसका आनंद लेते रहते हैं इस दोहरेपन के चलते अगर बच्चों में विद्रोह की भावना उठे तो क्या इसे अस्वाभाविक कहा जायेगा। इसके साथ ही पुरानी पीढ़ी को यह भी स्वीकार करना होगा कि कुछ बदलाव स्वाभाविक हैं। हम कुएं के मेंढक की तरह नहीं रह सकते। हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक करना होगा और उन पाश्चात्य धारणाओं को स्वीकार करना होगा जो भारतीय परंपरा से इत्तफाक नहीं रखते लेकिन नैतिक दृष्टि से स्वीकार्य हो सकते हैं। जैसाकि महात्मा गांधी ने कहा था कि हमें अपनी खिड़कियां खुली रखनी चाहियें ताकि पाश्चात्य विचारों की वायु का प्रवाह भी हम तक हो सके लेकिन हमारे पैर धरती पर भलीभांति जमे होने चाहिये जिससे विचारों का अंधड़ हमें अपनी जमीन से विस्थापित न कर सके।
महंगी गाड़ियों और मोबाइल फोन का शौक तब जन्म लेता है जब हम कड़ी मेहनत की कमाई से उपजे संतोष के मूल्य को भूल जाते हैं। जब हम अपनी परंपरा से कट जाते हैं और जब हमारे जीवन में उच्चतर मूल्यों का स्थान पैसा ले लेता है। चूंकि अभिभावक भी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के ही प्रयास में लगे रहते हैं अतएव उन्हें अपने बच्चों को यह समझाने में बहुत परेशानी होती है कि वह उन चीजों के बगैर भी रह सकते हैं।
करियर का विषय बहुत महत्वपूर्ण होता है और मतभेदों को टालने का उपयुक्त तरीका यही है कि बच्चे को अपनी रूचि का विषय चुनने की इजाजत दी जाये। अपनी रूचि का विषय चुनकर ही बच्चा अपनी पूरी दक्षता का उपयोग कर सकता है और कार्यक्षेत्र में अपनी पहचान कायम कर सकता है। हमें इस पूर्वाग्रह को त्यागना होगा कि केवल कोर्स की पढ़ाई ही अच्छे करियर का माध्यम हो सकती है। अगर बच्चा ललित कलाओं में बेहतर प्रदर्शन करता है तो इस दिशा में भी अच्छी संभावनाएं होती हैं। अगर बच्चा खेल में रूचि दिखा रहा है तो उसे इस ओर प्रोत्साहित करना चाहिये, उसे प्रशिक्षण की सुविधाएं देनी चाहिये ताकि वह इस दिशा में गंभीरता से प्रयास कर सके। जहां तक नौकरी का प्रश्न है केंद्र व राज्य सरकार ही नहीं, निजी कंपनियां भी खिलाड़ियों को अपने यहां मानद नौकरी देकर गौरव महसूस करती हैं। अगर सचिन तेंदुलकर के अभिभावकों ने उनके हाथ से बल्ला छीन लिया होता तो वह बहुत सामान्य और गुमनामी की जिंदगी जीते।
मतभेदों को टालने की भूमिका केवल पुरानी पीढ़ी को ही नहीं निभानी हैं। युवा पीढ़ी को भी इस ओर कदम उठाने होंगे। उन्हें पुरानी पीढ़ी के अनुभव का सम्मान करना होगा। कई बार यह हो सकता है कि पुरानी पीढ़ी के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे न हों लेकिन इससे उनके व्यवहारिक जीवन के अनुभवों का कोई संबंध नहीं है। कालिदास ने मेघदूतम में एक स्थान पर कोविद ग्राम वृद्धा पद का प्रयोग किया है इसे मेघ को समझाते हुए लिखा गया है, इसका अर्थ है कि गांव के बुजुर्ग भले ही पढ़े-लिखे नहीं है लेकिन अपने अनुभवों की वजह से विद्वान है अतएव समय-समय पर उनका परामर्श लेना उपयोगी साबित होता है। अगर युवा पीढ़ी समझती है कि नये समय की जरूरतों के लिये पुरानी पीढ़ी की सलाह उपयुक्त नहीं है तो वह इसमें बेशक परिवर्तन कर सकती है लेकिन अपने विचारों को रखने का तरीका संयत होना चाहिये। अगर पुरानी पीढ़ी के साथ विचारों में गतिरोध की स्थिति बनी रहती है तो ऐसी स्थिति में युवा पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी को आश्वस्त करना चाहिये कि जो दिशा उन्होंने चुनी है उसके लिये निर्णय काफी सजगता से लिये हैं और इसका आधार उन कारकों को बनाया हैं जिन पर शायद पुरानी पीढ़ी का ध्यान नहीं गया है अथवा वह नये समय के मूल्यों की अभिव्यक्ति है। दोनों ही पीढ़ियों को चाहिये कि विचारों को प्रगट करने का अपना तरीका बदलें, अपने विचार थोपने की बजाय उसे संवाद के नजरिये से रखें, गतिरोध की आशंका को टालें और नये और स्वस्थ विचारों को ग्रहण करने के प्रति उत्सुक हों।
(निधि के युववाणी कार्यक्रम के लिए लिखा गया लेख)

Thursday, April 28, 2011

चाऊंर वाले बाबा का सफल रहा सुराज

23 अप्रैल, मौहारी भाठा का दृश्य
बरगद के पेड़ के नीचे कुछ कुर्सियां लगा दी गई हैं। नीचे छांव में बड़ी संख्या में ग्रामीण बैठे हैं। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह इनसे सरल छत्तीसगढ़ी में बात कर रहे हैं। उनका लहजा बेहद आत्मीय है। ऐसा लग रहा है कि गाँव का मुखिया अपने लोगों से बात कर रहा है। भीड़ में बैठे एक छोटे से बच्चे से उन्होंने प्रश्न पूछा कि स्कूल के दार-भात हा मिठाथे की नई, बच्चा शर्मा गया और बुजुर्गों के लगातार आग्रह करने पर उसने शर्माते हुए हौ कहा। इसके बाद रमन की नजर एक बुजुर्ग व्यक्ति पर गई। बिल्कुल ठेठ अंदाज में उन्होंने उससे पूछा कि बबा तोर तबियत कैसन हे, वृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया कि तबियत हा तो नरम-गरम चलत हे। मुख्यमंत्री ने प्रश्न किया कि दवई मिलथे की नई, उसने कहां हां मिलथे तव, अऊ डाक्टर हा बेरा में अस्पताल आथे कि नहीं, उसने कहा हौ, आथे।
यह ठेठ अंदाज ही मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की खासियत है जिसने उन्होंने रमन से चाऊंर वाले बाबा की श्रेणी में ला खड़ा किया है। गाँधी जी ने अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में लिखा था कि भारत की अधिकांश आबादी गाँवों में बसती है लेकिन प्रशासनिक तंत्र का ध्यान देहात की ओर बिल्कुल भी नहीं। भारत को अगर खुदमुख्तार होना है तो गाँवों की ओर झांकना ही होगा। इसके बावजूद देश में पचास साल तक सरकारी तंत्र ने गाँवों की ओर रूख नहीं किया। कभी-कभार असाधारण घटना हो जाने पर ही सरकारी अधिकारी गाँवों के दौरे करते हैं नेता तो चुनाव के समय ही। ऐसा प्रयास जनता के नेताओं ने जरूर किया। विनोबा भावे ने भूदान और सर्वोदय आंदोलन के लिए गाँवों का व्यापक दौरा किया। इसके बाद यह प्रक्रिया लंबे समय तक स्थगित थी। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इस परंपरा को पुनः आरंभ कराया है। सरकार आपके द्वार पर।
यह प्रश्न जरूर पूछे जा सकते हैं कि बरस में एक बार ऐसा अभियान चलाने से क्या हासिल हो जाएगा। क्या गाँवों की समस्या इससे दूर हो जाएगी। जी नहीं, बिल्कुल भी नहीं लेकिन ऐसा भी नहीं कि इससे सूरत नहीं बदलेगी। ग्राम सुराज अभियान अपने छठवें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है लोग अभी भी उत्सुकता से रमन का इंतजार करते हैं। यह वार्षिक प्रक्रिया है इसलिए आप एक बार वादे करके भूल नहीं सकते, जिन अधिकारियों ने ऐसा किया है उसका नतीजा भी सामने आया है। ऐसे गाँवों में लोगों ने ग्राम सुराज अभियान का विरोध किया है। दरअसल सरकार जब आम जनता से संवाद की प्रक्रिया शुरू करती है तभी जनता के भीतर आक्रोश का ज्ञान सरकार को हो पाता है। इसके बाद सरकारी मशीनरी सक्रिय होती है अगर ऐसा नहीं होता है तो इस चुनावी तंत्र में दोबारा जनता अपनी भूल नहीं दोहराती। सरकार के सामने देहात की वस्तुस्थिति आती है।
लोग अक्सर यह प्रश्न पूछते हैं कि रमन सिंह के दिमाग में ऐसे आइडिया कहाँ से आते हैं जो पूरे देश के लिए रोलमाडल बन जाते हैं। चाहे पीडीएस का मामला हो, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार की भूरी-भूरी सराहना की अथवा रतनजोत की बात हो जिसके लिए पूर्व राष्ट्रपति अबुल कलाम ने प्रदेश सरकार की सराहना की। इन सबके पीछे है रमन सिंह को मिलने वाला फीडबैक। यह फीडबैक उन्हें लगातार जनता से मिलता है क्योंकि वह जनता से नियमित संवाद करते हैं। हाल ही में निर्मल गाँव के लिए सम्मानित पंचायत पदाधिकारियों का सम्मान राजधानी के होटल बेबीलोन इंटरनेशनल में हुआ। मुख्यमंत्री ने औपचारिक भाषण देने के बजाय सीधे गाँवों की समस्या की बात शुरू की। उन्होंने कहा कि सरकार हा तव आप मन बर शौचालय बनवाथे लेकिन आप मन अपन कुकरी-बोकरी ला एमा पाल लेथव। उनके भाषण बतलाते हैं कि मुख्यमंत्री केवल योजनाएँ बनाकर नहीं छोड़ देते, वे नियमित जाँच करते हैं कि इनका क्रियान्वयन हो रहा है अथवा नहीं। यही वजह है कि उनकी योजनाएँ तुगलकी नहीं रह जाती, वे यथार्थ में कमाल कर देती है। गाँवों में आई समृद्धि के पीछे एक बड़ी वजह यह है कि अब लोगों को भरपेट भोजन मिल रहा है। आर्थिक दुष्चिंताएँ कम हो रही हैं और लोग अब बचत भी करने लगे हैं।
मुख्यमंत्री के ग्राम सुराज अभियान की सफलता इसी बात से पता चलती है कि उपचुनावों में लगातार भाजपा को जीत मिल रही है। सुराज अभियान में ग्रामीणों के निडर चेहरे और साफगोई से ऐसा झलक जाता है कि वे लोकतांत्रिक शासन में रहते हैं जिनमें उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और वह खुलकर अपनी बात रख रहे हैं। यह अभियान जनता और सरकार के मध्य संवाद की कड़ी बन गया है। अब समय आ गया है कि मुख्यमंत्री को एक तंत्र बनाकर ग्राम सुराज अभियान में आई शिकायतों को समयबद्ध रूप से हल करने की कवायद करनी चाहिए, इससे यह संवाद की कड़ी अपने सबसे अच्छे रूप में काम कर पाएगी।