Thursday, October 21, 2010

सामी से क्यों नाराज हैं कांग्रेसी?

अंग्रेजी में एक कहावत प्रचलित है कि इफ यू आर लूकिंग फार ए स्केप गोट देन हियर आई एम अर्थात अगर आप बलि के बकरे की तलाश में हैं तो मैं यहां मौजूद हूं। राजनीतिक मसले के रूप में इसका पहली बार प्रयोग अमेरिकी अभिनेत्री मर्लिन मुनरो ने तब किया था जब उनके प्रेसीडेंट कैनेडी के साथ संबंधों को बढ़चढ़कर बताया गया था। छत्तीसगढ़ की राजनीति में पप्पू फरिश्ता भी खुद को बलि का बकरा बनाये जाने के आरोप लगा रहे हैं पप्पू भले ही गलत बयानी कर रहे हों लेकिन सच्चाई यह भी है कि प्रदेश कांग्रेस में सामी विरोधियों की कमी भी नहीं है। सामी से अधिकांश कांग्रेसी नेता खार खाये बैठे हुए थे लेकिन वह अपना असंतोष जाहिर कर पाते इससे पहले ही अधीर पप्पू फरिश्ता ने विरोध प्रदर्शन की सभी हदें पार करते हुए सामी पर कालिख फिंकवा दी।
दरअसल सामी की कार्यशैली ही ऐसी है जो विवादों को जन्म देती है। भाजपा के छत्तीसगढ़ प्रभारी जगत प्रकाश नड्डा की तुलना में नारायण सामी ज्यादा मुखर हैं वह पार्टी संबंधी मसलों पर बेबाक राय रखने के लिये जाने जाते हैं लेकिन उनका अंदाज-ए-बयां कुछ यूं होता है कि सामने वाला बगलें झांकने लगता है। सामी ने अपनी मुखर शैली से पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को नाराज कर दिया है। उनकी शैली लताडऩे की रही है और उन्होंने भटगांव में विधायकों की जमकर क्लास ली।
लेकिन सामी के प्रति नाराजगी केवल इसी वजह से नहीं है सामी के विरोधी कहते हैं कि सामी उनकी बात नहीं सुनते। पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने सामी को कई चिट्ठियां लिखी लेकिन सामी ने कोई जवाब नहीं दिया। वह तो यह भी कहते हैं कि जो चिट्ठी उन्होंने सोनिया को लिखी, वह भी सोनिया के पास नहीं पहुंची। स्थानीय नेता सामी पर यह आरोप लगाते हैं कि वह प्रभारी की हैसियत से अपना दायित्व पूरा नहीं कर रहे अर्थात पार्टी की जमीनी दिक्कतों से हाईकमान को वाकिफ नहीं कराते।
सामी के ऊपर यह भी आरोप लगता है कि अपने करीबी लोगों को आगे लाने के लिये वह वरिष्ठों की भी उपेक्षा कर देते हैं। टिकट वितरण के संबंध में आरोप लगाते हुए वह कहते हैं कि इसमें सामी ने अपने करीबी लोगों को टिकट दिलाई। यहां तक की कार्पोरेशन चुनावों में भी सामी ने अपने लोगों को उपकृत किया।
अगर प्रदेश प्रभारी के रूप में सामी के तीन साल के कार्यकाल पर नजर डालें तो उनके खाते में कोई उपलब्धि नहीं है। सामी पार्टी में चल रही गुटबाजी पर लगाम कसने में सफल नहीं हुए। वह संगठन चुनावों के दौरान भी पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं करा पाये। कालिख फेंकना अनुशासनहीनता की इंतहा थी लेकिन सामी के ही कार्यकाल में ऐसे कई वाकये आये जब अनुशासनहीनता की सीमाएं लांघी गई। सामी केवल अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की बात कहते रह गये और पार्टी के भीतर अराजक तत्वों का हौसला बढ़ता गया।
सामी की सबसे बड़ी विफलता संगठन चुनावों में हुई गड़बडिय़ों के संबंध में रही। जब कांग्रेस की गुटीय राजनीति द्वारा निष्पक्ष चुनाव बाधित किया जा रहा था और अपने लोगों को पिछले दरवाजे से प्रवेश दिया जा रहा था तब सामी ने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। जाहिर है जब विधिक तरीके से पार्टी में आगे बढऩे का रास्ता अवरूद्ध हो जाता है तब अपनी बात रखने के लिये अराजक तरीके ही अपनाये जाते हैं।

Saturday, October 16, 2010

संयोग से बनें, सामथ्र्य से टिके रमन

संसदीय राजनीति का खेल सांप-सीढ़ी की तरह होता है और इसमें विरले ही होता है कि किसी राजनेता का करियर बिना किसी उतार के बढ़ता ही चला जाये। संयोगवश मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के साथ ऐसी ही दुर्लभ घटना हुई है लेकिन उनकी उपलब्धि केवल संयोगवश नहीं है। पार्टी में अपने चिर-परिचित प्रतिद्वंदियों के मुकाबले रमन सिंह राजनीति में देर से आये। अजीत जोगी के शासनकाल में रमन सिंह केंद्रीय राजनीति में छत्तीसगढ़ का नेतृत्व कर रहे थे और वह छत्तीसगढ़ की राजनीति में जोगी की भूमिका ले सकते हैं यह किसी ने नहीं सोचा था, हाईकमान ने भी नहीं। यही वजह है कि दिलीप सिंह जूदेव ने अगले लोकसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व किया। यह तय था कि सफल होने पर जूदेव प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री होंगे लेकिन तभी सीडी कांड अस्तित्व में आ गया, जूदेव को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा और रमन के हाथों में प्रदेश की कमान आई। शांत और सरल स्वभाव के मुख्यमंत्री कैसे प्रदेश का नेतृत्व कर पायेंगे और किस प्रकार से दिग्गज नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का शमन करेंगे, आलाकमान के सामने यह सबसे बड़ा प्रश्न था। प्रदेश की बागडोर सबसे पहले अजीत जोगी ने संभाली थी जो अपने वक्तृत्व क्षमता और प्रशासनिक नियंत्रण के लिये जाने जाते हैं। ऐसे में नरम स्वभाव के मुख्यमंत्री ब्यूरोक्रेसी पर कैसे नियंत्रण रखेंगे। यह प्रश्न ही था।
रमन सिंह ने अभूतपूर्व धैर्य का प्रदर्शन किया। शुरूआती दौर में उन्होंने किसी प्रकार की घोषणा तथा नीति निर्माण से परहेज रखा और सरकारी प्रक्रिया और प्रदेश की समस्याओं की तासीर को समझने में वक्त लगाया। मुख्यमंत्री ने शुरूआती दौर में पूरी तरह होमवर्क किया और अब ऐसी स्थिति है कि प्रदेश के आंकड़े उन्हें जुबानी याद हैं और नीतियों के मामलों में ब्यूरोक्रेसी उन्हें भ्रमित नहीं कर सकती।
जोगी का दौर प्रयोगों का दौर था इनमें से अधिकांश प्रयोग खारिज कर दिये गये लेकिन इनके विफल होने का कारण होमवर्क की कमी थी। शुरूआती दौर के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी प्रयोग किये। इन प्रयोगों को महती सफलता मिली और बीपीएल परिवारों को दिया जाने वाले सस्ते राशन का प्रयोग तो इतिहास बन गया। चाऊंर वाले बाबा की उपाधि उन्हें यूं ही नहीं मिल गई। अभी बहुत वर्ष नहीं हुए कि रोजी-रोटी के लिये पलायन करने वालों की भीड़ स्टेशन में लगी रहती थी। गांव के वह बुजुर्ग जो किसी कारण से पलायन नहीं कर पाते थे बेहद विपन्न स्थिति में अपने दिन काटते थे लेकिन सस्ते चावल की नीति ने यह परिदृश्य बदला।
किसी लोकतांत्रिक समाज अथवा सभ्य समाज की पहली विशेषता होती है कि वह अपने लोगों को भूखों मरना नहीं छोड़ता। इसके बावजूद आजादी के पचास वर्षों में हमने भूखमरी से निजात दिलाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये थे। रमन सिंह सरकार ने यह उल्लेखनीय कदम उठाया है। इसके साथ महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना ने समृद्धि की पूरी तस्वीर तैयार की है।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमन सिंह की सफलता कई मायनों में उल्लेखनीय है। वह मोदी की तरह राष्ट्रीय राजनीति में कोई पहचान नहीं बना पाये हैं लेकिन मोदी के उलट उनके राजनीतिक विरोधी नहीं के बराबर हैं। राजनीति में रमन सिंह सौम्य चेहरा हैं उनकी सौम्यता उन्हें जनता के करीब ले जाती है। उनके विलक्षण कार्यों में से एक ग्राम सुराज अभियान रहा है। प्रदेश में ही नहीं, देश भर में पहली बार ऐसा देखा गया है कि जनता की सुध लेने केवल सरकार के मंत्री ही नहीं, पूरा सरकारी अमला पहुंचता है। कुछ रोचक घटनाएं भी होती हैं जहां गांववासियों द्वारा सुराज दल को बंधक बना लेने की खबरें आती हैं। विरोधी की ऐसी खुली अभिव्यक्ति उसी समाज में संभव है जो लोकतांत्रिक आदर्शों में जीता है और जहां विरोध करने का भय जनता के मन में नहीं रहता।
मुख्यमंत्री कई बार ऐसे फैसले करते हैं जो चौंकाते हैं और खुश भी करते हैं। मसलन उन्होंने स्वराज यात्रा की शुरूआत दूरस्थ नक्सली क्षेत्रों से की। शहीद वी.के चौबे के पुत्र का नियुक्ति पत्र उनके बलिदान दिवस के दिन उपलब्ध कराया। इसके बावजूद मुख्यमंत्री को अभी एक लंबा मुकाम तय करना है अभी तक सरकार को नक्सल मोर्चे पर सफलता नहीं मिल पाई है और राजनीतिक सांप-सीढ़ी के खेल में कब सांप सामने आ जायें, यह कहा नहीं जा सकता। मुख्यमंत्री को आगे भी ऐसी ही सतर्कता बरतनी पड़ेगी।

Saturday, October 2, 2010

जन्मभूमि का फैसला तय करेगा राजनीतिक दशा

राम जन्मभूमि पर हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के फैसले से देश का राजनीतिक वातावरण एक बार फिर से गरम हो चला है। राजनीतिक दलों ने फैसले के बाद निश्चित राजनीतिक दिशा तय कर ली है। इस राजनीतिक नजरिये में नब्बे के दशक जैसा सख्त रूख नहीं रखा गया है। भारतीय जनता पार्टी जिसने मंदिर आंदोलन को जन्म दिया था और इस पर आरूढ़ होकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंची थी। फैसले के बाद एक बार पुन: ऊर्जा से भर गई है। संयोगवश बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद के 20 साल उदारीकरण के साल भी हैं। इन सालों में भारतीय जनता की सोच में बुनियादी बदलाव भी आये हैं। उदारीकरण ने भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने के लिये प्रेरित किया है। इसके चलते देश का ध्यान संकीर्ण मानसिकता से निकलकर वृहत्तर लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये बढ़ा है। नई पीढ़ी धार्मिक ध्रुवीकरण के खतरों को समझती है। यही वजह है कि भाजपा के रूख में भी बदलाव आया है। भाजपा ने फैसले की संयमित व्याख्या की और दूसरे पक्ष से भी संवाद करने पर जोर दिया। फैसला ऐसे वक्त में आया है जब बिहार में चुनाव होने वाले हैं। राजद नेता फैसले से काफी हलाकान हैं। जहां जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ा नागरिक भाजपा के साथ जुड़ाव महसूस कर रहा है वहीं नीतिश कुमार की सेकुलर छवि का लाभ भी गठबंधन को है। नरेन्द्र मोदी की बिहार में प्रस्तावित सभा को लेकर भाजपा के बैकफुट में आने का लाभ भी नीतिश को मिलेगा। कुल मिलाकर नीतिश की पांचों ऊंगलियां घी में हैं। लालू दुविधा में हैं वह खुलकर इस फैसले का विरोध नहीं कर पा रहे हैं और न ही समर्थन करने की स्थिति में हैं जिसका घाटा उन्हें उठाना पड़ रहा है। जहां तक मुलायम की बात है वह दुविधामुक्त हैं और उन्होंने फैसले का विरोध करने का स्टैंड लिया है। निश्चित रूप से मुलायम लालू की तरह दो नावों की सवारी करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते, उनकी मंशा है कि उनके अपने मुस्लिम वोटबैंक के मजबूत दुर्ग में सेंध न लगे। इन सारे उदाहरणों में अगर गुजरे 20 सालों के अनुभवों से किसी पार्टी ने नहीं सीखा, वह समाजवादी पार्टी है। बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना गलत था और इस मुद्दे पर उदार हिंदुओं का एक बड़ा तबका उनसे सहमत था लेकिन अगर वह कोर्ट के ताजा फैसले को निराशाजनक बताते हैं तो इस उदार वोट बैंक से हाथ धो बैठेंगे जो ताजा फैसले को अदालत की आस्था पर मुहर बता रहा है। जहां तक मायावती की बात है उन्होंने फैसले के संबंध में संतुलित नजरिया रखा और सुलह-सफाई कराने की जिम्मेदारी केंद्र के मत्थे डाल दी। मायावती ने यूपी के अल्पसंख्यकों को भरोसा भी दिलाया कि सरकार उनके जान-माल की पूरी रक्षा करेगी। इस तरह उन्होंने फैसले के प्रतिकूल प्रतिक्रिया किये बगैर ही मुस्लिम भावनाओं को जीत लिया। फैसले के प्रति कांग्रेस ने भी संतुलित नजरिया रखा लेकिन इसके बावजूद फैसले से कांग्रेस के हाथ कुछ भी नहीं आया। ताजा फैसले के बाद यूपी में वोटों का ध्रुवीकरण एक बार फिर भाजपा और सपा के पक्ष में जायेगा और मायावती भी पर्याप्त हिस्सा पा लेंगी। वाम दलों ने हमेशा की तरह अपना स्टैंड रखा है। बंगाल में आम चुनाव होने वाले हैं और यहां एक बड़ा तबका अल्पसंख्यकों का है। साथ ही यह भी देखना होगा कि धर्म के पक्ष में वाम दृष्टिकोण रखने वाले मतदाता भी सीपीएम के पक्ष में होंगे। वैसे बिहार-बंगाल में होने चुनाव इस बात के एसिड टेस्ट होंगे कि कैसे