Saturday, October 16, 2010

संयोग से बनें, सामथ्र्य से टिके रमन

संसदीय राजनीति का खेल सांप-सीढ़ी की तरह होता है और इसमें विरले ही होता है कि किसी राजनेता का करियर बिना किसी उतार के बढ़ता ही चला जाये। संयोगवश मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के साथ ऐसी ही दुर्लभ घटना हुई है लेकिन उनकी उपलब्धि केवल संयोगवश नहीं है। पार्टी में अपने चिर-परिचित प्रतिद्वंदियों के मुकाबले रमन सिंह राजनीति में देर से आये। अजीत जोगी के शासनकाल में रमन सिंह केंद्रीय राजनीति में छत्तीसगढ़ का नेतृत्व कर रहे थे और वह छत्तीसगढ़ की राजनीति में जोगी की भूमिका ले सकते हैं यह किसी ने नहीं सोचा था, हाईकमान ने भी नहीं। यही वजह है कि दिलीप सिंह जूदेव ने अगले लोकसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व किया। यह तय था कि सफल होने पर जूदेव प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री होंगे लेकिन तभी सीडी कांड अस्तित्व में आ गया, जूदेव को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा और रमन के हाथों में प्रदेश की कमान आई। शांत और सरल स्वभाव के मुख्यमंत्री कैसे प्रदेश का नेतृत्व कर पायेंगे और किस प्रकार से दिग्गज नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का शमन करेंगे, आलाकमान के सामने यह सबसे बड़ा प्रश्न था। प्रदेश की बागडोर सबसे पहले अजीत जोगी ने संभाली थी जो अपने वक्तृत्व क्षमता और प्रशासनिक नियंत्रण के लिये जाने जाते हैं। ऐसे में नरम स्वभाव के मुख्यमंत्री ब्यूरोक्रेसी पर कैसे नियंत्रण रखेंगे। यह प्रश्न ही था।
रमन सिंह ने अभूतपूर्व धैर्य का प्रदर्शन किया। शुरूआती दौर में उन्होंने किसी प्रकार की घोषणा तथा नीति निर्माण से परहेज रखा और सरकारी प्रक्रिया और प्रदेश की समस्याओं की तासीर को समझने में वक्त लगाया। मुख्यमंत्री ने शुरूआती दौर में पूरी तरह होमवर्क किया और अब ऐसी स्थिति है कि प्रदेश के आंकड़े उन्हें जुबानी याद हैं और नीतियों के मामलों में ब्यूरोक्रेसी उन्हें भ्रमित नहीं कर सकती।
जोगी का दौर प्रयोगों का दौर था इनमें से अधिकांश प्रयोग खारिज कर दिये गये लेकिन इनके विफल होने का कारण होमवर्क की कमी थी। शुरूआती दौर के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी प्रयोग किये। इन प्रयोगों को महती सफलता मिली और बीपीएल परिवारों को दिया जाने वाले सस्ते राशन का प्रयोग तो इतिहास बन गया। चाऊंर वाले बाबा की उपाधि उन्हें यूं ही नहीं मिल गई। अभी बहुत वर्ष नहीं हुए कि रोजी-रोटी के लिये पलायन करने वालों की भीड़ स्टेशन में लगी रहती थी। गांव के वह बुजुर्ग जो किसी कारण से पलायन नहीं कर पाते थे बेहद विपन्न स्थिति में अपने दिन काटते थे लेकिन सस्ते चावल की नीति ने यह परिदृश्य बदला।
किसी लोकतांत्रिक समाज अथवा सभ्य समाज की पहली विशेषता होती है कि वह अपने लोगों को भूखों मरना नहीं छोड़ता। इसके बावजूद आजादी के पचास वर्षों में हमने भूखमरी से निजात दिलाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये थे। रमन सिंह सरकार ने यह उल्लेखनीय कदम उठाया है। इसके साथ महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना ने समृद्धि की पूरी तस्वीर तैयार की है।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमन सिंह की सफलता कई मायनों में उल्लेखनीय है। वह मोदी की तरह राष्ट्रीय राजनीति में कोई पहचान नहीं बना पाये हैं लेकिन मोदी के उलट उनके राजनीतिक विरोधी नहीं के बराबर हैं। राजनीति में रमन सिंह सौम्य चेहरा हैं उनकी सौम्यता उन्हें जनता के करीब ले जाती है। उनके विलक्षण कार्यों में से एक ग्राम सुराज अभियान रहा है। प्रदेश में ही नहीं, देश भर में पहली बार ऐसा देखा गया है कि जनता की सुध लेने केवल सरकार के मंत्री ही नहीं, पूरा सरकारी अमला पहुंचता है। कुछ रोचक घटनाएं भी होती हैं जहां गांववासियों द्वारा सुराज दल को बंधक बना लेने की खबरें आती हैं। विरोधी की ऐसी खुली अभिव्यक्ति उसी समाज में संभव है जो लोकतांत्रिक आदर्शों में जीता है और जहां विरोध करने का भय जनता के मन में नहीं रहता।
मुख्यमंत्री कई बार ऐसे फैसले करते हैं जो चौंकाते हैं और खुश भी करते हैं। मसलन उन्होंने स्वराज यात्रा की शुरूआत दूरस्थ नक्सली क्षेत्रों से की। शहीद वी.के चौबे के पुत्र का नियुक्ति पत्र उनके बलिदान दिवस के दिन उपलब्ध कराया। इसके बावजूद मुख्यमंत्री को अभी एक लंबा मुकाम तय करना है अभी तक सरकार को नक्सल मोर्चे पर सफलता नहीं मिल पाई है और राजनीतिक सांप-सीढ़ी के खेल में कब सांप सामने आ जायें, यह कहा नहीं जा सकता। मुख्यमंत्री को आगे भी ऐसी ही सतर्कता बरतनी पड़ेगी।

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