Monday, August 16, 2010

एक जून की रोटी या एक टायलेट पेपर

रायपुर में जब क्वींस बैटन आया तब मेरे मन में कुछ और ही चल रहा था, एक स्थानीय न्यूज चैनल में क्वींस बैटन की भव्य महिमा दिखाई जा रही थी, वहीं एक राष्ट्रीय चैनल में बताया जा रहा था कि खेलों के दौरान इस्तेमाल होने वाले एक टायलेट पेपर की कीमत ३५ रुपए है, यह वह रकम है जो भारत के चालीस प्रतिशत गरीब एक दिन में जुटा पाते हैं और इसका अधिकांश हिस्सा उनके खाने में चला जाता है। खैर, एयरो शो के बाद रायपुर में शायद इस साल यह पहला अवसर आया जब लोगों ने बड़ी संख्या में किसी सार्वजनिक आयोजन में भाग लिया। यही क्वींस बैटन का रायपुर में आगमन था, हममें से बहुतों को यह बहुत भाया, कुछ लोगों ने इसे छूकर देखा और इसे जीवन का महत्वपूर्ण क्षण बताया। मेरे लिये यह मौका खास खुशी का नहीं था क्योंकि क्वींस बैटन पर विचार करने से पिछली कई बातें भी ध्यान में आती हैं जैसाकि गालिब ने कहा था कि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। तो क्वींस बैटन की झांकी मुझे ढाई सौ साल पहले ले गई जब महारानी के कारिंदों ने व्यापारियों के रूप में इस महान देश में कदम रखा। ढाई सौ साल तक इन्होंने इस महान देश को चूसा और अंत में इसे छोड़ गये लेकिन अपनी सांस्कृतिक विरासत हमें दे गये। सांस्कृतिक विरासत में उन्होंने मैकाले के संस्कार हमें दिये जिसमें हम भूरे अंग्रेज बन गये। अब हम हिंदी बोलने में सकुचाते हैं अपनी स्थानीय बोली तो हम भूल से भी उन लोगों के समक्ष नहीं बोलते जिन्हें हम संभ्रांत जन मानते हैं। क्वींस बैटन का भारत में आगमन उन पुरानी बेड़ियों को याद दिलाने जैसा था। हम कभी महारानी की प्रजा थे, एक ऐसी प्रजा जिसके लिये अंग्रेज अपने रेस्टारेंट में लिखते थे कि डाग एंड इंडियन आर नाट अलाउड हियर। खैर अंग्रेज हमें छोड़ गये और हमने कामनवेल्थ में शामिल होने का निश्चय किया। इसका यह मतलब नहीं था कि ब्रिटेन से हमारे संबंध मधुर हो गये, उन्होंने कभी भी विदेशी मामलों में हमारा साथ नहीं दिया। इसे भी छोड़ दिया जाये तो भी ब्रिटिश क्वीन ने कभी भी यह नहीं माना कि भारत में ब्रिटिश राज कई मायनों में भारत के लिये अभिशाप की तरह था। हाल ही में उन्होंने अमृतसर की यात्रा की, लोगों ने अपील की कि यह बहुत अच्छा अवसर है कि जलियांवाला बाग की गलती के लिये कम से कम महारानी खेद जतायें। महारानी ने यात्रा की लेकिन खेद नहीं जताया गोया जलियांवाला बाग कोई पिकनिक प्लेस हो। इन सब को भी छोड़ दिया जाये तो भी कामनवेल्थ खेलों का स्वागत क्यों करें। क्या हमने इन खेलों के लिये वैसे ही एथलीट तैयार किये हैं जैसे चीन एशियाड और ओलंपिक खेलों की मेजबानी के दौरान करता है क्या कामनवेल्थ खेल भारतीय खेलों का उत्कर्ष दिखायेंगे या हर बार की तरह इस बार भी हम फिसड्डी साबित होंगे। दरअसल कामनवेल्थ खेल ऐसे देश में बिल्कुल बेमानी हैं जहां की चालीस प्रतिशत जनता को दो जून की रोटी नहीं मिलती, जहां मध्यवर्ग की महंगाई के आगे रीढ़ टूट गई है लेकिन कामनवेल्थ का संसार देखें तो ऐसा लगता है कि भारत जन्नत की तरह हैं। यहां भव्य पांच सितारा होटल बने हैं जिनके बनाने में करोड़ों खर्च किये गये हैं। पूरे खेल का खर्च ४०००० करोड़ रुपए ठहरता है। जो सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि को अपरिहार्य मानती है वह इस खर्च को कैसे अपरिहार्य बता सकती है। अगर सरकार खेलों की इतनी ही बेहतरी चाहती है तो इतने पैसे में हर कस्बे में बेहतर ग्राउंड बना सकती है।
दरअसल यह खेल तो कमाई करने का जरिया हैं खिलाड़ियों के लिये नहीं, दिग्गज राजनेताओं के लिये जो कुंडली मार कर खेल संघ के बड़े पदों में बैठे हुए हैं। शरद पवार ने सबसे ज्यादा मलाईदार खेल क्रिकेट को पकड़ा है और उनके पड़ोसी कलमाड़ी ने ओलंपिक संघ की कमान संभाली है। हर स्तर पर करोड़ों रुपए का हेरफेर हुआ है। तैयारी तय समय पर पूरी भी नहीं हो पाई है। कामनवेल्थ के लिये यमुना के किनारे जो बड़ा खेल गांव बनाया गया है उससे पूरे दिल्ली के पर्यावरणिक संतुलन में गंभीर खतरा बना हुआ है। अगर हम अंग्रेजों से सीखना ही चाहते तो उनसे कुछ ईमानदारी और पारदर्शिता सीख लेते लेकिन हम अच्छी चीजों को सीखने में भरोसा नहीं रखते। भारत में अंग्रेजी प्रशासन ने ईमानदारी की परंपरा कायम की लेकिन आजादी मिलते ही महत्वाकांक्षी नेताओं ने उन्हें छोड़ दिया। फिलहाल लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री भले ही इसे देश का गौरव कहें लेकिन सबको मालूम है कि कामनवेल्थ से हम सब कितने बदनाम हो गये हैं।

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