Friday, February 26, 2010

मुझे मुंशी जी की किताबें चाहिये।

ऐसे समय में जब नई पीढ़ी के लोग अपना अधिकतर समय शापिंग माल में काफी की चुस्कियों के साथ तेज पश्चिमी धुनों के बीच गुजार रहे हैं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने जड़ों की तलाश में हैं। जहां पढ़ने का मतलब रुश्दी और चेतन भगत तक ही सीमित रह गया है वहां प्रेमचंद के पाठक ढूंढ निकालना काफी सुखद लगता है लेकिन मुंशी जी ऐसे लेखक हैं जिन्होंने सचिन के बल्ले की तरह ही हमेशा रोमांचित करने वाले अनुभव दिये हैं। जो साहित्य का ककहरा भी नहीं जानते उनसे मैने प्रेमचंद के बारे में सुना है। दो ऐसे किस्से हैं जो जानकर आश्चर्य होता है। दसवीं फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ चुके एक शख्स जिनका पढ़ाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा है एक बार बातचीत करने पर उन्होंने कहा कि भाई सुनो प्रेमचंद ने नमक का दरोगा में लिखा है कि पैसा सबसे बड़ा धर्म है ऐसा कुछ( मुझे याद नहीं कि उन्होंने क्या कहा था लेकिन ऐसी चीज कही थी जिसे मैं मिस कर गया था इस कहानी को पढ़ने के बाद)। आज ऐसा ही वाक्या एक वोहरा लड़की जो बुर्के में थी वो आई और दुकानदार से कहने लगी कि मुझे मुंशी जी की पुस्तकें चाहिये। उसे न केवल उनकी किताबों के प्रति चाव था अपितु मुंशी जी के संबोधन में वह गहरा आदरभाव भी नजर आ रहा था।

1 comment:

Kapil said...

काश कि मुंशीजी की किताबों को उन लोगों तक बड़े पैमाने पर पहुंचाया जा सकता जिनके लिए उन्‍होंने कलम चलायी थी। वैसे इससे यह बात भी पता लगती है कि वर्तमान अपसंस्‍कृति कितना ही घना कुहासा फैलाना चाहे, मानवीय सरोकारों के मूल्‍यों वाली रचनाओं की जरूरत न सिर्फ बनी रहती है बल्कि कुहासा फैलने के साथ-साथ बढ़ने लगती है। क्‍या ऐसा नहीं लगता आपको।