अंग्रेजी में एक कहावत प्रचलित है कि इफ यू आर लूकिंग फार ए स्केप गोट देन हियर आई एम अर्थात अगर आप बलि के बकरे की तलाश में हैं तो मैं यहां मौजूद हूं। राजनीतिक मसले के रूप में इसका पहली बार प्रयोग अमेरिकी अभिनेत्री मर्लिन मुनरो ने तब किया था जब उनके प्रेसीडेंट कैनेडी के साथ संबंधों को बढ़चढ़कर बताया गया था। छत्तीसगढ़ की राजनीति में पप्पू फरिश्ता भी खुद को बलि का बकरा बनाये जाने के आरोप लगा रहे हैं पप्पू भले ही गलत बयानी कर रहे हों लेकिन सच्चाई यह भी है कि प्रदेश कांग्रेस में सामी विरोधियों की कमी भी नहीं है। सामी से अधिकांश कांग्रेसी नेता खार खाये बैठे हुए थे लेकिन वह अपना असंतोष जाहिर कर पाते इससे पहले ही अधीर पप्पू फरिश्ता ने विरोध प्रदर्शन की सभी हदें पार करते हुए सामी पर कालिख फिंकवा दी।
दरअसल सामी की कार्यशैली ही ऐसी है जो विवादों को जन्म देती है। भाजपा के छत्तीसगढ़ प्रभारी जगत प्रकाश नड्डा की तुलना में नारायण सामी ज्यादा मुखर हैं वह पार्टी संबंधी मसलों पर बेबाक राय रखने के लिये जाने जाते हैं लेकिन उनका अंदाज-ए-बयां कुछ यूं होता है कि सामने वाला बगलें झांकने लगता है। सामी ने अपनी मुखर शैली से पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को नाराज कर दिया है। उनकी शैली लताडऩे की रही है और उन्होंने भटगांव में विधायकों की जमकर क्लास ली।
लेकिन सामी के प्रति नाराजगी केवल इसी वजह से नहीं है सामी के विरोधी कहते हैं कि सामी उनकी बात नहीं सुनते। पार्टी के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने सामी को कई चिट्ठियां लिखी लेकिन सामी ने कोई जवाब नहीं दिया। वह तो यह भी कहते हैं कि जो चिट्ठी उन्होंने सोनिया को लिखी, वह भी सोनिया के पास नहीं पहुंची। स्थानीय नेता सामी पर यह आरोप लगाते हैं कि वह प्रभारी की हैसियत से अपना दायित्व पूरा नहीं कर रहे अर्थात पार्टी की जमीनी दिक्कतों से हाईकमान को वाकिफ नहीं कराते।
सामी के ऊपर यह भी आरोप लगता है कि अपने करीबी लोगों को आगे लाने के लिये वह वरिष्ठों की भी उपेक्षा कर देते हैं। टिकट वितरण के संबंध में आरोप लगाते हुए वह कहते हैं कि इसमें सामी ने अपने करीबी लोगों को टिकट दिलाई। यहां तक की कार्पोरेशन चुनावों में भी सामी ने अपने लोगों को उपकृत किया।
अगर प्रदेश प्रभारी के रूप में सामी के तीन साल के कार्यकाल पर नजर डालें तो उनके खाते में कोई उपलब्धि नहीं है। सामी पार्टी में चल रही गुटबाजी पर लगाम कसने में सफल नहीं हुए। वह संगठन चुनावों के दौरान भी पारदर्शिता सुनिश्चित नहीं करा पाये। कालिख फेंकना अनुशासनहीनता की इंतहा थी लेकिन सामी के ही कार्यकाल में ऐसे कई वाकये आये जब अनुशासनहीनता की सीमाएं लांघी गई। सामी केवल अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की बात कहते रह गये और पार्टी के भीतर अराजक तत्वों का हौसला बढ़ता गया।
सामी की सबसे बड़ी विफलता संगठन चुनावों में हुई गड़बडिय़ों के संबंध में रही। जब कांग्रेस की गुटीय राजनीति द्वारा निष्पक्ष चुनाव बाधित किया जा रहा था और अपने लोगों को पिछले दरवाजे से प्रवेश दिया जा रहा था तब सामी ने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। जाहिर है जब विधिक तरीके से पार्टी में आगे बढऩे का रास्ता अवरूद्ध हो जाता है तब अपनी बात रखने के लिये अराजक तरीके ही अपनाये जाते हैं।
Thursday, October 21, 2010
Saturday, October 16, 2010
संयोग से बनें, सामथ्र्य से टिके रमन
संसदीय राजनीति का खेल सांप-सीढ़ी की तरह होता है और इसमें विरले ही होता है कि किसी राजनेता का करियर बिना किसी उतार के बढ़ता ही चला जाये। संयोगवश मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के साथ ऐसी ही दुर्लभ घटना हुई है लेकिन उनकी उपलब्धि केवल संयोगवश नहीं है। पार्टी में अपने चिर-परिचित प्रतिद्वंदियों के मुकाबले रमन सिंह राजनीति में देर से आये। अजीत जोगी के शासनकाल में रमन सिंह केंद्रीय राजनीति में छत्तीसगढ़ का नेतृत्व कर रहे थे और वह छत्तीसगढ़ की राजनीति में जोगी की भूमिका ले सकते हैं यह किसी ने नहीं सोचा था, हाईकमान ने भी नहीं। यही वजह है कि दिलीप सिंह जूदेव ने अगले लोकसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व किया। यह तय था कि सफल होने पर जूदेव प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री होंगे लेकिन तभी सीडी कांड अस्तित्व में आ गया, जूदेव को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा और रमन के हाथों में प्रदेश की कमान आई। शांत और सरल स्वभाव के मुख्यमंत्री कैसे प्रदेश का नेतृत्व कर पायेंगे और किस प्रकार से दिग्गज नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का शमन करेंगे, आलाकमान के सामने यह सबसे बड़ा प्रश्न था। प्रदेश की बागडोर सबसे पहले अजीत जोगी ने संभाली थी जो अपने वक्तृत्व क्षमता और प्रशासनिक नियंत्रण के लिये जाने जाते हैं। ऐसे में नरम स्वभाव के मुख्यमंत्री ब्यूरोक्रेसी पर कैसे नियंत्रण रखेंगे। यह प्रश्न ही था।
रमन सिंह ने अभूतपूर्व धैर्य का प्रदर्शन किया। शुरूआती दौर में उन्होंने किसी प्रकार की घोषणा तथा नीति निर्माण से परहेज रखा और सरकारी प्रक्रिया और प्रदेश की समस्याओं की तासीर को समझने में वक्त लगाया। मुख्यमंत्री ने शुरूआती दौर में पूरी तरह होमवर्क किया और अब ऐसी स्थिति है कि प्रदेश के आंकड़े उन्हें जुबानी याद हैं और नीतियों के मामलों में ब्यूरोक्रेसी उन्हें भ्रमित नहीं कर सकती।
जोगी का दौर प्रयोगों का दौर था इनमें से अधिकांश प्रयोग खारिज कर दिये गये लेकिन इनके विफल होने का कारण होमवर्क की कमी थी। शुरूआती दौर के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी प्रयोग किये। इन प्रयोगों को महती सफलता मिली और बीपीएल परिवारों को दिया जाने वाले सस्ते राशन का प्रयोग तो इतिहास बन गया। चाऊंर वाले बाबा की उपाधि उन्हें यूं ही नहीं मिल गई। अभी बहुत वर्ष नहीं हुए कि रोजी-रोटी के लिये पलायन करने वालों की भीड़ स्टेशन में लगी रहती थी। गांव के वह बुजुर्ग जो किसी कारण से पलायन नहीं कर पाते थे बेहद विपन्न स्थिति में अपने दिन काटते थे लेकिन सस्ते चावल की नीति ने यह परिदृश्य बदला।
किसी लोकतांत्रिक समाज अथवा सभ्य समाज की पहली विशेषता होती है कि वह अपने लोगों को भूखों मरना नहीं छोड़ता। इसके बावजूद आजादी के पचास वर्षों में हमने भूखमरी से निजात दिलाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये थे। रमन सिंह सरकार ने यह उल्लेखनीय कदम उठाया है। इसके साथ महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना ने समृद्धि की पूरी तस्वीर तैयार की है।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमन सिंह की सफलता कई मायनों में उल्लेखनीय है। वह मोदी की तरह राष्ट्रीय राजनीति में कोई पहचान नहीं बना पाये हैं लेकिन मोदी के उलट उनके राजनीतिक विरोधी नहीं के बराबर हैं। राजनीति में रमन सिंह सौम्य चेहरा हैं उनकी सौम्यता उन्हें जनता के करीब ले जाती है। उनके विलक्षण कार्यों में से एक ग्राम सुराज अभियान रहा है। प्रदेश में ही नहीं, देश भर में पहली बार ऐसा देखा गया है कि जनता की सुध लेने केवल सरकार के मंत्री ही नहीं, पूरा सरकारी अमला पहुंचता है। कुछ रोचक घटनाएं भी होती हैं जहां गांववासियों द्वारा सुराज दल को बंधक बना लेने की खबरें आती हैं। विरोधी की ऐसी खुली अभिव्यक्ति उसी समाज में संभव है जो लोकतांत्रिक आदर्शों में जीता है और जहां विरोध करने का भय जनता के मन में नहीं रहता।
मुख्यमंत्री कई बार ऐसे फैसले करते हैं जो चौंकाते हैं और खुश भी करते हैं। मसलन उन्होंने स्वराज यात्रा की शुरूआत दूरस्थ नक्सली क्षेत्रों से की। शहीद वी.के चौबे के पुत्र का नियुक्ति पत्र उनके बलिदान दिवस के दिन उपलब्ध कराया। इसके बावजूद मुख्यमंत्री को अभी एक लंबा मुकाम तय करना है अभी तक सरकार को नक्सल मोर्चे पर सफलता नहीं मिल पाई है और राजनीतिक सांप-सीढ़ी के खेल में कब सांप सामने आ जायें, यह कहा नहीं जा सकता। मुख्यमंत्री को आगे भी ऐसी ही सतर्कता बरतनी पड़ेगी।
रमन सिंह ने अभूतपूर्व धैर्य का प्रदर्शन किया। शुरूआती दौर में उन्होंने किसी प्रकार की घोषणा तथा नीति निर्माण से परहेज रखा और सरकारी प्रक्रिया और प्रदेश की समस्याओं की तासीर को समझने में वक्त लगाया। मुख्यमंत्री ने शुरूआती दौर में पूरी तरह होमवर्क किया और अब ऐसी स्थिति है कि प्रदेश के आंकड़े उन्हें जुबानी याद हैं और नीतियों के मामलों में ब्यूरोक्रेसी उन्हें भ्रमित नहीं कर सकती।
जोगी का दौर प्रयोगों का दौर था इनमें से अधिकांश प्रयोग खारिज कर दिये गये लेकिन इनके विफल होने का कारण होमवर्क की कमी थी। शुरूआती दौर के बाद मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी प्रयोग किये। इन प्रयोगों को महती सफलता मिली और बीपीएल परिवारों को दिया जाने वाले सस्ते राशन का प्रयोग तो इतिहास बन गया। चाऊंर वाले बाबा की उपाधि उन्हें यूं ही नहीं मिल गई। अभी बहुत वर्ष नहीं हुए कि रोजी-रोटी के लिये पलायन करने वालों की भीड़ स्टेशन में लगी रहती थी। गांव के वह बुजुर्ग जो किसी कारण से पलायन नहीं कर पाते थे बेहद विपन्न स्थिति में अपने दिन काटते थे लेकिन सस्ते चावल की नीति ने यह परिदृश्य बदला।
किसी लोकतांत्रिक समाज अथवा सभ्य समाज की पहली विशेषता होती है कि वह अपने लोगों को भूखों मरना नहीं छोड़ता। इसके बावजूद आजादी के पचास वर्षों में हमने भूखमरी से निजात दिलाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये थे। रमन सिंह सरकार ने यह उल्लेखनीय कदम उठाया है। इसके साथ महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना ने समृद्धि की पूरी तस्वीर तैयार की है।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमन सिंह की सफलता कई मायनों में उल्लेखनीय है। वह मोदी की तरह राष्ट्रीय राजनीति में कोई पहचान नहीं बना पाये हैं लेकिन मोदी के उलट उनके राजनीतिक विरोधी नहीं के बराबर हैं। राजनीति में रमन सिंह सौम्य चेहरा हैं उनकी सौम्यता उन्हें जनता के करीब ले जाती है। उनके विलक्षण कार्यों में से एक ग्राम सुराज अभियान रहा है। प्रदेश में ही नहीं, देश भर में पहली बार ऐसा देखा गया है कि जनता की सुध लेने केवल सरकार के मंत्री ही नहीं, पूरा सरकारी अमला पहुंचता है। कुछ रोचक घटनाएं भी होती हैं जहां गांववासियों द्वारा सुराज दल को बंधक बना लेने की खबरें आती हैं। विरोधी की ऐसी खुली अभिव्यक्ति उसी समाज में संभव है जो लोकतांत्रिक आदर्शों में जीता है और जहां विरोध करने का भय जनता के मन में नहीं रहता।
मुख्यमंत्री कई बार ऐसे फैसले करते हैं जो चौंकाते हैं और खुश भी करते हैं। मसलन उन्होंने स्वराज यात्रा की शुरूआत दूरस्थ नक्सली क्षेत्रों से की। शहीद वी.के चौबे के पुत्र का नियुक्ति पत्र उनके बलिदान दिवस के दिन उपलब्ध कराया। इसके बावजूद मुख्यमंत्री को अभी एक लंबा मुकाम तय करना है अभी तक सरकार को नक्सल मोर्चे पर सफलता नहीं मिल पाई है और राजनीतिक सांप-सीढ़ी के खेल में कब सांप सामने आ जायें, यह कहा नहीं जा सकता। मुख्यमंत्री को आगे भी ऐसी ही सतर्कता बरतनी पड़ेगी।
Saturday, October 2, 2010
जन्मभूमि का फैसला तय करेगा राजनीतिक दशा
राम जन्मभूमि पर हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के फैसले से देश का राजनीतिक वातावरण एक बार फिर से गरम हो चला है। राजनीतिक दलों ने फैसले के बाद निश्चित राजनीतिक दिशा तय कर ली है। इस राजनीतिक नजरिये में नब्बे के दशक जैसा सख्त रूख नहीं रखा गया है। भारतीय जनता पार्टी जिसने मंदिर आंदोलन को जन्म दिया था और इस पर आरूढ़ होकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंची थी। फैसले के बाद एक बार पुन: ऊर्जा से भर गई है। संयोगवश बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद के 20 साल उदारीकरण के साल भी हैं। इन सालों में भारतीय जनता की सोच में बुनियादी बदलाव भी आये हैं। उदारीकरण ने भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने के लिये प्रेरित किया है। इसके चलते देश का ध्यान संकीर्ण मानसिकता से निकलकर वृहत्तर लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये बढ़ा है। नई पीढ़ी धार्मिक ध्रुवीकरण के खतरों को समझती है। यही वजह है कि भाजपा के रूख में भी बदलाव आया है। भाजपा ने फैसले की संयमित व्याख्या की और दूसरे पक्ष से भी संवाद करने पर जोर दिया। फैसला ऐसे वक्त में आया है जब बिहार में चुनाव होने वाले हैं। राजद नेता फैसले से काफी हलाकान हैं। जहां जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ा नागरिक भाजपा के साथ जुड़ाव महसूस कर रहा है वहीं नीतिश कुमार की सेकुलर छवि का लाभ भी गठबंधन को है। नरेन्द्र मोदी की बिहार में प्रस्तावित सभा को लेकर भाजपा के बैकफुट में आने का लाभ भी नीतिश को मिलेगा। कुल मिलाकर नीतिश की पांचों ऊंगलियां घी में हैं। लालू दुविधा में हैं वह खुलकर इस फैसले का विरोध नहीं कर पा रहे हैं और न ही समर्थन करने की स्थिति में हैं जिसका घाटा उन्हें उठाना पड़ रहा है। जहां तक मुलायम की बात है वह दुविधामुक्त हैं और उन्होंने फैसले का विरोध करने का स्टैंड लिया है। निश्चित रूप से मुलायम लालू की तरह दो नावों की सवारी करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते, उनकी मंशा है कि उनके अपने मुस्लिम वोटबैंक के मजबूत दुर्ग में सेंध न लगे। इन सारे उदाहरणों में अगर गुजरे 20 सालों के अनुभवों से किसी पार्टी ने नहीं सीखा, वह समाजवादी पार्टी है। बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना गलत था और इस मुद्दे पर उदार हिंदुओं का एक बड़ा तबका उनसे सहमत था लेकिन अगर वह कोर्ट के ताजा फैसले को निराशाजनक बताते हैं तो इस उदार वोट बैंक से हाथ धो बैठेंगे जो ताजा फैसले को अदालत की आस्था पर मुहर बता रहा है। जहां तक मायावती की बात है उन्होंने फैसले के संबंध में संतुलित नजरिया रखा और सुलह-सफाई कराने की जिम्मेदारी केंद्र के मत्थे डाल दी। मायावती ने यूपी के अल्पसंख्यकों को भरोसा भी दिलाया कि सरकार उनके जान-माल की पूरी रक्षा करेगी। इस तरह उन्होंने फैसले के प्रतिकूल प्रतिक्रिया किये बगैर ही मुस्लिम भावनाओं को जीत लिया। फैसले के प्रति कांग्रेस ने भी संतुलित नजरिया रखा लेकिन इसके बावजूद फैसले से कांग्रेस के हाथ कुछ भी नहीं आया। ताजा फैसले के बाद यूपी में वोटों का ध्रुवीकरण एक बार फिर भाजपा और सपा के पक्ष में जायेगा और मायावती भी पर्याप्त हिस्सा पा लेंगी। वाम दलों ने हमेशा की तरह अपना स्टैंड रखा है। बंगाल में आम चुनाव होने वाले हैं और यहां एक बड़ा तबका अल्पसंख्यकों का है। साथ ही यह भी देखना होगा कि धर्म के पक्ष में वाम दृष्टिकोण रखने वाले मतदाता भी सीपीएम के पक्ष में होंगे। वैसे बिहार-बंगाल में होने चुनाव इस बात के एसिड टेस्ट होंगे कि कैसे
Sunday, September 26, 2010
vaishnav jan translated by khushwant singh
Translation by noted Indian author and columnist Mr. Khushwant Singh. In a column written for The Hindustan Times, Mr. Singh published his English rendering of Bapu Gandhi's favorite hymn:
A godlike man is one,
Who feels another’s pain
Who shares another’s sorrow,
And pride does disdain.
Who regards himself as the lowliest of the low,
Speaks not a word of evil against any one
One who keeps himself steadfast in words, body and mind,
Blessed is the mother who gives birth to such a son.
Who looks upon everyone as his equal and has renounced lust,
And who honours women like he honours his mother
Whose tongue knows not the taste of falsehood till his last breath,
Nor covets another’s worldly goods.
He does not desire worldly things,
For he treads the path of renunciation
Ever on his lips is Rama’s holy name,
All places of pilgrimage are within him.
One who is not greedy and deceitful,
And has conquered lust and anger
Through such a man Saint Narsaiyon has a godly vision,
Generations to come, of such a man, will attain salvation
A godlike man is one,
Who feels another’s pain
Who shares another’s sorrow,
And pride does disdain.
Who regards himself as the lowliest of the low,
Speaks not a word of evil against any one
One who keeps himself steadfast in words, body and mind,
Blessed is the mother who gives birth to such a son.
Who looks upon everyone as his equal and has renounced lust,
And who honours women like he honours his mother
Whose tongue knows not the taste of falsehood till his last breath,
Nor covets another’s worldly goods.
He does not desire worldly things,
For he treads the path of renunciation
Ever on his lips is Rama’s holy name,
All places of pilgrimage are within him.
One who is not greedy and deceitful,
And has conquered lust and anger
Through such a man Saint Narsaiyon has a godly vision,
Generations to come, of such a man, will attain salvation
Wednesday, September 22, 2010
बदलते भारत में नई छवि गढऩे को तैयार आरएसएस
रामजन्मभूमि विवाद पर अदालत का फैसला आने को है और आरएसएस की प्रतिक्रियाएं सबको आश्चर्यचकित कर रही हैं। अपने पहले के कठोर रूख के विपरीत आरएसएस ने कहा है कि अदालत के फैसले का सम्मान करेगी और अपनी प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक दायरे में रखेगी। आरएसएस ने यह जरूर कहा है कि अगर फैसले से उसकी अहसमति होती है तो जरूर वह सुप्रीम कोर्ट का रास्ता पकड़ सकता है। इस रूख की तुलना अगर अनुषांगिक दलों की प्रतिक्रिया से करें तो इसमें काफी फर्क है। एक प्रमुख अनुषांगिक दल के नेता ने कहा है कि इस मामले में न्याय केवल संसद द्वारा ही मिल सकता है और संसद को कानून पारित कर मंदिर बनाने का रास्ता प्रशस्त करना चाहिये।
दरअसल संघ परिवार से मिल रहे नये संकेत उन बदलावों के परिणामस्वरूप गढ़े गये हैं जो उदारीकरण के 20 साल के दौर में भारत ने महसूस किये हैं। बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश में भयंकर दंगे हुए थे लेकिन इन दंगों से लोगों को सबक भी मिला। यही वजह है कि बाद में गोधरा जैसे भयंकर हादसे के बाद भी दंगे गुजरात की सीमा में ही रहे। 1997 में भारत में एक नई लीडरशिप आई। इस नये नेतृत्व के उभरने का कारण भाजपा का दक्षिणपंथी रूझान रहा। मुस्लिम वोटबैंक भी बाबरी मस्जिद को बचाने में अक्षम रहे कांग्रेसी नेतृत्व से बिदक गया। वाजपेयी को सर्वसम्मति से लीडर चुने जाने के पहले पार्टी में यह कश्मकश जोरों पर थी कि भाजपा से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन हो? संघ आडवाणी की लौहपुरूष वाली छवि को देखते हुए इन्हें इस सर्वोच्च पद पर चुने जाने का इच्छुक था। यह वह वक्त था जब गोविंदाचार्य जैसे तत्कालीन दिग्गजों ने वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा भी कह दिया था। फिर भी संघ की लीडरशीप यह जानती थी कि वाजपेयी का चेहरा जनता के बीच ज्यादा लोकप्रिय है भले ही संगठनकर्ता के रूप में आडवाणी का योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण था। संघ के भीतर एक ऐसा तबका जरूर था जो तब भी वाजपेयी की पैरोकारी कर रहा था जब उन्होंने सबके सामने मोदी से राजधर्म निभाने की बात कही थी। इस समय सुदर्शन और वाजपेयी के मतभेद खुलकर सामने आये थे।
वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान संघ और भाजपा के बीच कुछ मतभेद भी सामने आये थे लेकिन जहां तक वाजपेयी की बात है उन्होंने सबको साथ में लेकर चलने की नीति से सफलतापूर्वक पांच साल सरकार चलाकर साबित कर दिया कि सौम्य चेहरा और उदार नीतियां ही जनतंत्र में सफल हो सकते हैं। भाजपा राम मंदिर का मुद्दा लेकर चुनावों में गई थी लेकिन गठबंधन राजनीति की जटिलताओं के चलते इस संबंध में कुछ नहीं कर पाई इसका खामियाजा पार्टी को चुनावों में भुगतना पड़ा। वाजपेयी के शासनकाल के दौरान एक दूसरी लीडरशीप आरएसएस में खड़ी हो रही थी जो सौम्य चेहरा लेकर आगे चल रही थी।
मोहन भागवत बदलते हुए आरएसएस का चेहरा थे और यही वजह है कि जब नया उत्तराधिकारी चुनने की बात आई तो दौड़ में सबसे आगे भागवत थे। 80 साल पुराने इस संगठन का नेतृत्व जब मोहन भागवत के हाथों आया तो उन्होंने अपने पहले ही सार्वजनिक बयान में कहा कि आरएसएस ऐसा संगठन है जो बदलते समय की चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को हमेशा से तैयार करता रहा है। 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को दोबारा मिले जनादेश ने भी आरएसएस के लिये आत्ममंथन की स्थिति निर्मित की। 2009 में आम जनता के पास दो विकल्प थे एक तो मनमोहन सिंह जिन्होंने हमेशा अपनी सौम्य छवि सामने रखी और लालकृष्ण आडवाणी जिन्होंने अपनी छवि पूरी तौर पर प्रहार करने वाले नेता की रखी। जनता ने इस लौहपुरूष की छवि को अस्वीकार कर दिया। 20 साल में भारतीय जनता के मुद्दे बदले हैं वह सर्वसम्मति की राजनीति पसंद करती है। उसने वरूण के भड़काऊ भाषणों को पसंद नहीं किया। राहुल की शांत छवि को पसंद किया। 1991 में मंदिर आंदोलन से जुड़े अधकांश नेता जैसे उमा भारती, विनय कटियार, मुरली मनोहर जोशी आज राजनीतिक हाशिये में हैं। आरएसएस ने अपनी नई छवि उदारीकरण के दौर में बदल रहे इसी नये भारत में खोजनी शुरू कर दी है।
दरअसल संघ परिवार से मिल रहे नये संकेत उन बदलावों के परिणामस्वरूप गढ़े गये हैं जो उदारीकरण के 20 साल के दौर में भारत ने महसूस किये हैं। बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश में भयंकर दंगे हुए थे लेकिन इन दंगों से लोगों को सबक भी मिला। यही वजह है कि बाद में गोधरा जैसे भयंकर हादसे के बाद भी दंगे गुजरात की सीमा में ही रहे। 1997 में भारत में एक नई लीडरशिप आई। इस नये नेतृत्व के उभरने का कारण भाजपा का दक्षिणपंथी रूझान रहा। मुस्लिम वोटबैंक भी बाबरी मस्जिद को बचाने में अक्षम रहे कांग्रेसी नेतृत्व से बिदक गया। वाजपेयी को सर्वसम्मति से लीडर चुने जाने के पहले पार्टी में यह कश्मकश जोरों पर थी कि भाजपा से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन हो? संघ आडवाणी की लौहपुरूष वाली छवि को देखते हुए इन्हें इस सर्वोच्च पद पर चुने जाने का इच्छुक था। यह वह वक्त था जब गोविंदाचार्य जैसे तत्कालीन दिग्गजों ने वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा भी कह दिया था। फिर भी संघ की लीडरशीप यह जानती थी कि वाजपेयी का चेहरा जनता के बीच ज्यादा लोकप्रिय है भले ही संगठनकर्ता के रूप में आडवाणी का योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण था। संघ के भीतर एक ऐसा तबका जरूर था जो तब भी वाजपेयी की पैरोकारी कर रहा था जब उन्होंने सबके सामने मोदी से राजधर्म निभाने की बात कही थी। इस समय सुदर्शन और वाजपेयी के मतभेद खुलकर सामने आये थे।
वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान संघ और भाजपा के बीच कुछ मतभेद भी सामने आये थे लेकिन जहां तक वाजपेयी की बात है उन्होंने सबको साथ में लेकर चलने की नीति से सफलतापूर्वक पांच साल सरकार चलाकर साबित कर दिया कि सौम्य चेहरा और उदार नीतियां ही जनतंत्र में सफल हो सकते हैं। भाजपा राम मंदिर का मुद्दा लेकर चुनावों में गई थी लेकिन गठबंधन राजनीति की जटिलताओं के चलते इस संबंध में कुछ नहीं कर पाई इसका खामियाजा पार्टी को चुनावों में भुगतना पड़ा। वाजपेयी के शासनकाल के दौरान एक दूसरी लीडरशीप आरएसएस में खड़ी हो रही थी जो सौम्य चेहरा लेकर आगे चल रही थी।
मोहन भागवत बदलते हुए आरएसएस का चेहरा थे और यही वजह है कि जब नया उत्तराधिकारी चुनने की बात आई तो दौड़ में सबसे आगे भागवत थे। 80 साल पुराने इस संगठन का नेतृत्व जब मोहन भागवत के हाथों आया तो उन्होंने अपने पहले ही सार्वजनिक बयान में कहा कि आरएसएस ऐसा संगठन है जो बदलते समय की चुनौतियों के अनुरूप स्वयं को हमेशा से तैयार करता रहा है। 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को दोबारा मिले जनादेश ने भी आरएसएस के लिये आत्ममंथन की स्थिति निर्मित की। 2009 में आम जनता के पास दो विकल्प थे एक तो मनमोहन सिंह जिन्होंने हमेशा अपनी सौम्य छवि सामने रखी और लालकृष्ण आडवाणी जिन्होंने अपनी छवि पूरी तौर पर प्रहार करने वाले नेता की रखी। जनता ने इस लौहपुरूष की छवि को अस्वीकार कर दिया। 20 साल में भारतीय जनता के मुद्दे बदले हैं वह सर्वसम्मति की राजनीति पसंद करती है। उसने वरूण के भड़काऊ भाषणों को पसंद नहीं किया। राहुल की शांत छवि को पसंद किया। 1991 में मंदिर आंदोलन से जुड़े अधकांश नेता जैसे उमा भारती, विनय कटियार, मुरली मनोहर जोशी आज राजनीतिक हाशिये में हैं। आरएसएस ने अपनी नई छवि उदारीकरण के दौर में बदल रहे इसी नये भारत में खोजनी शुरू कर दी है।
Monday, August 16, 2010
एक जून की रोटी या एक टायलेट पेपर
रायपुर में जब क्वींस बैटन आया तब मेरे मन में कुछ और ही चल रहा था, एक स्थानीय न्यूज चैनल में क्वींस बैटन की भव्य महिमा दिखाई जा रही थी, वहीं एक राष्ट्रीय चैनल में बताया जा रहा था कि खेलों के दौरान इस्तेमाल होने वाले एक टायलेट पेपर की कीमत ३५ रुपए है, यह वह रकम है जो भारत के चालीस प्रतिशत गरीब एक दिन में जुटा पाते हैं और इसका अधिकांश हिस्सा उनके खाने में चला जाता है। खैर, एयरो शो के बाद रायपुर में शायद इस साल यह पहला अवसर आया जब लोगों ने बड़ी संख्या में किसी सार्वजनिक आयोजन में भाग लिया। यही क्वींस बैटन का रायपुर में आगमन था, हममें से बहुतों को यह बहुत भाया, कुछ लोगों ने इसे छूकर देखा और इसे जीवन का महत्वपूर्ण क्षण बताया। मेरे लिये यह मौका खास खुशी का नहीं था क्योंकि क्वींस बैटन पर विचार करने से पिछली कई बातें भी ध्यान में आती हैं जैसाकि गालिब ने कहा था कि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। तो क्वींस बैटन की झांकी मुझे ढाई सौ साल पहले ले गई जब महारानी के कारिंदों ने व्यापारियों के रूप में इस महान देश में कदम रखा। ढाई सौ साल तक इन्होंने इस महान देश को चूसा और अंत में इसे छोड़ गये लेकिन अपनी सांस्कृतिक विरासत हमें दे गये। सांस्कृतिक विरासत में उन्होंने मैकाले के संस्कार हमें दिये जिसमें हम भूरे अंग्रेज बन गये। अब हम हिंदी बोलने में सकुचाते हैं अपनी स्थानीय बोली तो हम भूल से भी उन लोगों के समक्ष नहीं बोलते जिन्हें हम संभ्रांत जन मानते हैं। क्वींस बैटन का भारत में आगमन उन पुरानी बेड़ियों को याद दिलाने जैसा था। हम कभी महारानी की प्रजा थे, एक ऐसी प्रजा जिसके लिये अंग्रेज अपने रेस्टारेंट में लिखते थे कि डाग एंड इंडियन आर नाट अलाउड हियर। खैर अंग्रेज हमें छोड़ गये और हमने कामनवेल्थ में शामिल होने का निश्चय किया। इसका यह मतलब नहीं था कि ब्रिटेन से हमारे संबंध मधुर हो गये, उन्होंने कभी भी विदेशी मामलों में हमारा साथ नहीं दिया। इसे भी छोड़ दिया जाये तो भी ब्रिटिश क्वीन ने कभी भी यह नहीं माना कि भारत में ब्रिटिश राज कई मायनों में भारत के लिये अभिशाप की तरह था। हाल ही में उन्होंने अमृतसर की यात्रा की, लोगों ने अपील की कि यह बहुत अच्छा अवसर है कि जलियांवाला बाग की गलती के लिये कम से कम महारानी खेद जतायें। महारानी ने यात्रा की लेकिन खेद नहीं जताया गोया जलियांवाला बाग कोई पिकनिक प्लेस हो। इन सब को भी छोड़ दिया जाये तो भी कामनवेल्थ खेलों का स्वागत क्यों करें। क्या हमने इन खेलों के लिये वैसे ही एथलीट तैयार किये हैं जैसे चीन एशियाड और ओलंपिक खेलों की मेजबानी के दौरान करता है क्या कामनवेल्थ खेल भारतीय खेलों का उत्कर्ष दिखायेंगे या हर बार की तरह इस बार भी हम फिसड्डी साबित होंगे। दरअसल कामनवेल्थ खेल ऐसे देश में बिल्कुल बेमानी हैं जहां की चालीस प्रतिशत जनता को दो जून की रोटी नहीं मिलती, जहां मध्यवर्ग की महंगाई के आगे रीढ़ टूट गई है लेकिन कामनवेल्थ का संसार देखें तो ऐसा लगता है कि भारत जन्नत की तरह हैं। यहां भव्य पांच सितारा होटल बने हैं जिनके बनाने में करोड़ों खर्च किये गये हैं। पूरे खेल का खर्च ४०००० करोड़ रुपए ठहरता है। जो सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि को अपरिहार्य मानती है वह इस खर्च को कैसे अपरिहार्य बता सकती है। अगर सरकार खेलों की इतनी ही बेहतरी चाहती है तो इतने पैसे में हर कस्बे में बेहतर ग्राउंड बना सकती है।
दरअसल यह खेल तो कमाई करने का जरिया हैं खिलाड़ियों के लिये नहीं, दिग्गज राजनेताओं के लिये जो कुंडली मार कर खेल संघ के बड़े पदों में बैठे हुए हैं। शरद पवार ने सबसे ज्यादा मलाईदार खेल क्रिकेट को पकड़ा है और उनके पड़ोसी कलमाड़ी ने ओलंपिक संघ की कमान संभाली है। हर स्तर पर करोड़ों रुपए का हेरफेर हुआ है। तैयारी तय समय पर पूरी भी नहीं हो पाई है। कामनवेल्थ के लिये यमुना के किनारे जो बड़ा खेल गांव बनाया गया है उससे पूरे दिल्ली के पर्यावरणिक संतुलन में गंभीर खतरा बना हुआ है। अगर हम अंग्रेजों से सीखना ही चाहते तो उनसे कुछ ईमानदारी और पारदर्शिता सीख लेते लेकिन हम अच्छी चीजों को सीखने में भरोसा नहीं रखते। भारत में अंग्रेजी प्रशासन ने ईमानदारी की परंपरा कायम की लेकिन आजादी मिलते ही महत्वाकांक्षी नेताओं ने उन्हें छोड़ दिया। फिलहाल लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री भले ही इसे देश का गौरव कहें लेकिन सबको मालूम है कि कामनवेल्थ से हम सब कितने बदनाम हो गये हैं।
दरअसल यह खेल तो कमाई करने का जरिया हैं खिलाड़ियों के लिये नहीं, दिग्गज राजनेताओं के लिये जो कुंडली मार कर खेल संघ के बड़े पदों में बैठे हुए हैं। शरद पवार ने सबसे ज्यादा मलाईदार खेल क्रिकेट को पकड़ा है और उनके पड़ोसी कलमाड़ी ने ओलंपिक संघ की कमान संभाली है। हर स्तर पर करोड़ों रुपए का हेरफेर हुआ है। तैयारी तय समय पर पूरी भी नहीं हो पाई है। कामनवेल्थ के लिये यमुना के किनारे जो बड़ा खेल गांव बनाया गया है उससे पूरे दिल्ली के पर्यावरणिक संतुलन में गंभीर खतरा बना हुआ है। अगर हम अंग्रेजों से सीखना ही चाहते तो उनसे कुछ ईमानदारी और पारदर्शिता सीख लेते लेकिन हम अच्छी चीजों को सीखने में भरोसा नहीं रखते। भारत में अंग्रेजी प्रशासन ने ईमानदारी की परंपरा कायम की लेकिन आजादी मिलते ही महत्वाकांक्षी नेताओं ने उन्हें छोड़ दिया। फिलहाल लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री भले ही इसे देश का गौरव कहें लेकिन सबको मालूम है कि कामनवेल्थ से हम सब कितने बदनाम हो गये हैं।
Sunday, March 28, 2010
शहीदों का सम्मान बुलडोजर से नहीं फूलों से करें डा साहब
शहीदों के सम्मान में मेले तो दूर छत्तीसगढ़ की सरकार ने उनकी आखरी स्मृतियों को मटियामेट करने का फैसला भी कर लिया है। रायपुर से गुजरते हुए एक स्थानीय अखबार में देखा कि सरकार ट्रैफिक की जरूरतों के अनुरूप जयस्तंभ चौक को हटाने जा रही है। यह बेहद हास्यास्पद स्थिति है कि जिस जगह पर प्रदेश के पहले शहीद वीर नारायण सिंह को तोप से उड़ाया गया, वहां पर अब स्मृति चिह्न की जगह पर बुलडोजर चलेंगे। यह बेहद दुखद है कि सरकार मामूली ट्रैफिक जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रदेश के आत्मस्वाभिमान के साथ खिलवाड़ कर रही है। डा. साहब हमें ऐसा प्रदेश नहीं चाहिये जो अपनी अतीत की स्मृतियों से टूट चुका हो। उसमें जो विकास होगा वह केवल आर्थिक होगा वह किसी भी तरह से सुराज नहीं होगा।
Friday, February 26, 2010
मुझे मुंशी जी की किताबें चाहिये।
ऐसे समय में जब नई पीढ़ी के लोग अपना अधिकतर समय शापिंग माल में काफी की चुस्कियों के साथ तेज पश्चिमी धुनों के बीच गुजार रहे हैं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने जड़ों की तलाश में हैं। जहां पढ़ने का मतलब रुश्दी और चेतन भगत तक ही सीमित रह गया है वहां प्रेमचंद के पाठक ढूंढ निकालना काफी सुखद लगता है लेकिन मुंशी जी ऐसे लेखक हैं जिन्होंने सचिन के बल्ले की तरह ही हमेशा रोमांचित करने वाले अनुभव दिये हैं। जो साहित्य का ककहरा भी नहीं जानते उनसे मैने प्रेमचंद के बारे में सुना है। दो ऐसे किस्से हैं जो जानकर आश्चर्य होता है। दसवीं फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ चुके एक शख्स जिनका पढ़ाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा है एक बार बातचीत करने पर उन्होंने कहा कि भाई सुनो प्रेमचंद ने नमक का दरोगा में लिखा है कि पैसा सबसे बड़ा धर्म है ऐसा कुछ( मुझे याद नहीं कि उन्होंने क्या कहा था लेकिन ऐसी चीज कही थी जिसे मैं मिस कर गया था इस कहानी को पढ़ने के बाद)। आज ऐसा ही वाक्या एक वोहरा लड़की जो बुर्के में थी वो आई और दुकानदार से कहने लगी कि मुझे मुंशी जी की पुस्तकें चाहिये। उसे न केवल उनकी किताबों के प्रति चाव था अपितु मुंशी जी के संबोधन में वह गहरा आदरभाव भी नजर आ रहा था।
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