Saturday, December 5, 2009
क्या हनुमान के लंका दहन को हिंसा के दायरे में रखा जा सकता है?
यद्यपि हनुमान ने लंका जलाई लेकिन किसी भी रहवासी को तकलीफ पहुंचाई हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता, केवल उन्होंने समृद्धि के मद में चूर हो गये एक शहर को चुनौती दी कि इस समृद्धि को हासिल करने के लिए उन्होंने कितने निर्दोषों को सताया है। विचार करने पर मुझे यह प्रसंग फिर बेहद सहज लगा।
Sunday, November 1, 2009
क्या आपने भी लिया है नजर कवच यंत्र
Monday, October 26, 2009
हम भस्मासुर नहीं हैं रहमान मलिक साहब
Thursday, October 22, 2009
हिटलरशाही को बढ़ावा देने वाला जनादेश
राज की अभूतपूर्व सफलता ने कुछ सवाल उठाये हैं विशेषकर कुछ महीने पूर्व हुए लोकसभा के जनादेश के संबंध में किये जा रहे दावों पर। लोकसभा के नतीजों की व्याख्या करते हुए कहा गया था कि भारतीय मतदाता काफी समझदार हो गया है अब वह जातिवाद, संप्रदायवाद और क्षेत्रीयतावाद के नारों से उब चुका है और परिपक्व राजनीति की ओर आगे बढ़ रहा है। गौरतलब है कि इन चुनावों में राज ठाकरे की तरह का एक चेहरा पीलीभीत से चुनाव लड़ रहा था जिसका नाम था वरूण गांधी। जनादेश 2009 को एक तरह से राहुल की सौम्यता और वरूण की उग्रता के बीच की जंग के रूप में भी देखा गया था और लोगों ने कहा कि राहुल की जीत हुई है। जैसाकि ऊपर कहा गया कि विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस के चल रहे सुखांत नाटक की अगली कड़ी का हिस्सा भर थे। राज ठाकरे की सफलता बताती है कि क्षेत्रीयतावाद जैसे मसले भारतीय राजनीति में अब भी अहम हैं और इससे वोट पड़ते हैं। दुख की बात है कि भारत की वित्तीय और सांस्कृतिक राजधानी से ऐसा जनादेश आ रहा है जो ऐसे व्यक्ति की पैरोकारी कर रहा है जो मराठी अस्मिता के नाम पर गालीगलौच का इस्तेमाल कर रहा है। दुख की बात यह भी है कि मुंबई ने सबसे ज्यादा महत्व उस व्यक्ति को दिया जो तब अपनी मांद में बैठा रहा जब आतंकवादी मुंबई की छाती को छलनी कर रहे थे।
राज की विधानसभा चुनावों में आशातीत सफलता को सीटों के लिहाज से कम नहीं आंकना चाहिए। हमे याद रखना चाहिए कि हिटलर की नाजी पार्टी को भी पहले चुनाव में 12 सीटें मिली थी और इसके बाद इनका आंकड़ा निरंतर बढ़ते ही गया था। राज ठाकरे को बढ़ाने में केवल वह लोग दोषी नहीं हैं जो क्षेत्रीयतावाद के खतरे को कम करके आंक रहे हैं इसके लिए वह भी दोषी हैं जो इसकी कर्कश आवाज को सुनकर भी कानों में ऊंगली डाले बैठें हैं।
ऐसे लोगों के लिए ही दिनकर ने कुरूक्षेत्र में लिखा है कि
“ समर शेष है रण का भागी केवल नहीं व्याघ्र, जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध
Thursday, October 8, 2009
वेरियर एल्विन जो मिशनरी से आदिवासी बने
दुनिया भर में मिशनरी समाज ने भले ही पुरानी सांस्कृतिक मान्यताओं में हस्तक्षेप कर उन्हें तोड़ा हो लेकिन उन्हें ही पहली बार श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने अब तक अनछुयी धरती के हजारों रंगों को हमारे सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने हमे दुनिया के ऐसे हिस्से दिखाये जहां हम अपने सबसे पुराने समय को और उस समय के व्यवहारों को जान सकते थे। संभवतः रूसो अगर अठारहवीं सदी की बजाय उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए होते तो उन्हें अपने कल्पित संसार का वास्तविक नजारा देखने मिलता। मिशनरियों की यह प्रक्रिया शुरू हुई सेंट टामस जैसे यात्रियों से जिन्होंने स्पाइस रूट को पहली बार धार्मिक मिशन के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन दरअसल सही मायने में आदिवासी संस्कृति के सबसे करीब हमे ले गये राबर्ट लिविंगस्टोन जैसे यात्री, जिनमें मिशनरी उत्साह तो था ही, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रंगों से भी गहरा लगाव था। लेकिन यह आलेख मिशनरियों के दुनिया की खोज को सामने लाने नहीं लिखा गया है यह आलेख तो ऐसे मिशनरी के बारे में है जिसने अपना मिशन ही बदल दिया। वेरियन एल्विन जो सुदूर अंधमहासागर के सियरा लियोन में धर्मप्रचार कर रहे एक पादरी के बेटे थे, भारत में धर्म प्रचार करने पहुंचे। एल्विन सही मायने में ईसा के उपदेशों को जीने वाले लोगों में से थे और इसके लिए स्वाभाविक रूप से भारत आने पर वह गांधी के करीब आये जो मेरे विचार से २०वीं सदी में ईसा के आदर्श को जीने वाले चुनींदा लोगों में से थे। एल्विन के व्यक्तित्व की बनावट दुनिया में पैदा होने वाले उन थोड़े से लोगों में से थी जो उद्दाम नही के किनारे केवल नजारा देखना पसंद नहीं करते, वह उसमें उतरते हैं और नदी के भीतर की अशांत हलचल उनके भी जीवन का हिस्सा बन जाती है। दिलचस्प बात यह है कि एल्विन भारत में आदिवासी संस्कृति का धार्मिक रूपांतरण करने आये थे, ऐसे लोग जो उनके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग थे, हमेशा से शांत रहने वाले, दुर्गम घाटियों की खोह में सदियों से एक जैसा जीवन जीने वाले।
हो सकता है कि एल्विन अपने साथ वैसा ही सिद्धांत लेकर आये हों जैसा किपलिंग ने भारत के लिए सभ्य जाति का बोझ जैसा तथाकथित उदार मुहावरा प्रस्तुत किया था। लेकिन आदिवासियों के बीच रह कर एल्विन को लगा कि इनके आचार-विचार और जीवन दर्शन हमारे सभ्य समाज से कहीं बेहतर है और हम जो इन्हें अपने आदर्श सिखाने आये हैं कितने बेमानी विचार रखते आये थे। एल्विन मानवविज्ञानी नहीं थे लेकिन उनकी गोड़ जनजाति पर लिखी किताबें उनके इस विषय पर असाधारण ज्ञान और समझ की परिचायक हैं। पूरी प्रक्रिया के दौरान एल्विन को लगा कि भीतर से वह भी कहीं न कहीं आदिवासी हैं और जब ऐसा हुआ तो स्वाभाविक था कि चर्च के विरोध का सामना करना पड़ता। एल्विन ने हम भारतीयों को भी पहली बार ऐसी दुनिया से परिचित कराया जिनके इतने निकट रहते हुए भी हम इस तरह से परिचित नहीं थे। यद्यपि भारत में वर्णव्यवस्थाओं की कठोरता के बावजूद हिंदू समाज का जनजातीय समाज से स्नेहपूर्ण संबंध रहा है आप कालिदास से लेकर तुलसी के साहित्य तक इसका दर्शन कर सकते हैं। एल्विन ने गोड़ जनजाति के बीच अपना लंबा समय गुजारा और इसके बाद उनकी बहुचर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई, मुड़िया एंड देयर घोटुल। इसका प्रकाशन भारत में क्रांतिकारी थी, भारतीयों के लिए भी अंग्रेजों के लिए भी। (यह बिल्कुल विवेकानंद के शिकागो भाषण की तरह आंखे खोलने वाला था जिसके बारे में न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा था कि हम ऐसे देश में धर्मप्रचार और सभ्यता की बातें करते हैं जो प्रज्ञा की जननी है, विवेकानंद को सुनकर हमें लगता है कि हम कितने गलत था)। घोटुल के भीतर का निर्दोष वातावरण, यहां रहकर स्त्री-पुरूषों को समानता के वातावरण में साथी का वरण और प्रकृति की खुली गोद में सामूहिकता का भाव ऐसी बातें थी जिन्हें रूढ़ियों से ग्रस्त हमारा समाज कभी का पीछे छोड़ चुका है। एल्विन के जीवन का दिलचस्प प्रसंग उनकी एक आदिवासी लड़की कोसी से ब्याह था जो उनकी छात्रा रह चुकी थी। विवाह के समय एल्विन ३६ साल के थे और कोसी १४ साल की। उनके दो पुत्र हुए जवाहर और विजय, आठ साल के बाद एल्विन, कोसी से अलग हो गये, उन्होंने कोसी को अपने मित्र शामराव हिलारे के संरक्षण में छोड़ दिया।( कोसी को यह नहीं बताया गया कि हिलोरे भी अपनी पत्नी को तलाक दे चुके हैं)। उन्हें जबलपुर का अपना मकान दे दिया और २५ रुपए गुजारा भत्ता भी। लेकिन १९६४ में हुई एल्विन की मृत्यु के बाद हिलोरे ने कोसी की संपत्ति हड़प ली, उसने एल्विन की दूसरी पत्नी लीला का संपत्ति भी हड़प ली। कोसी अब बेहद विपन्नता की स्थिति में मंडला के एक छोटे से आदिवासी गांव में अपना अंतिम समय बीता रही है। यद्यपि एल्विन ने कोसी के साथ पूरा न्याय नहीं किया लेकिन उन्होंने नेहरू के जनजातीय सलाहकार के रूप में स्वतंत्र भारत सरकार की जनजातीय नीति के निर्माण में मील के पत्थर के रूप में काम किया। हाल ही में रामचंद्र गुहा द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी सैवेजिंग द सिविलाइजेशन- वेरियन एल्विन में उनके जीवन के बहुत से अनछूए पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है जो यह बताने की पूरी कोशिश करता है कि किस प्रकार पहले मिशनरी ने अपने को आदिवासी के रूप में बदलने की सफल कोशिश की
Thursday, September 10, 2009
गांधी की पोतियों के साथ ऐसे विवरण दिखाना कितना भ्रामक
Tuesday, August 25, 2009
पार्टी विद डिफरेंस नहीं पार्टी विद डिफरेंसेस
Monday, July 20, 2009
चरित्र हत्या का यह खेल हिंदी में पुराना है...
Friday, June 19, 2009
अमेरिका का उतरा या रूस का, चक्कर क्या है।
भारत के दो सबसे तेज न्यूज चैनल का दावा करने वाले आज तक और इंडिया टीवी में खबर आई है कि भारत की सीमा में एक कार्गो विमान घुस आया है। खबर के आगे देखिये, इंडिया टीवी विस्तार से बताता है कि विमान अमेरिका का है और इसके पायलेटों से घंटों बातचीत होने के बाद प्रशासन आश्वस्त हो गया है। उधर भारत का सबसे तेज चैनल आज तक बताता है कि रूसी विमान हमारी सीमा में घुस आया है। जो न्यूज चैनल यहां तक जानकारी रखते हैं कि सल्लू मियां ने ऐश्वर्या के बंगले के बगल से एक फ्लैट ले लिया है और शाइनी घटनाक्रम के तार झारखंड से जुड़े हैं क्या भारत की सिक्युरिटी के अहम मसले पर बिना तैयारी के ऐसा समाचार दे सकते हैं जो विरोधाभासी हो। दरअसल यह खबरों को परोसने का जमाना है, इंडिया टीवी की एन्कर कहती है कि आप जल्दी में हैं इसलिए हम आपको ट्वेंटी-ट्वेंटी स्टाईल में 20 खबरें संक्षिप्त रूप में बेहद जल्दी परोसेंगे। उधर आज तक के प्रभु चावला कहते हैं कि जब तक दो-तीन ब्रेकिंग न्यूज न सुन लूं , मेरा खाना नहीं पचता। तो अब यह मान लीजिए कि हमारा समय बदल गया है न्यूज हमारे लिए मनोरंजन है और जब तक इसमें कुछ नया नहीं घटेगा तब तक हमारे लिए यह ऊब से भरे सीरियलों का भी विकल्प नहीं देगा। मुझे लगता है कि चैनल तो टीआरपी का खेल करेंगे ही, जब तक प्रबुद्ध दर्शक हंस की तरह नीर-क्षीर का विवेक नहीं करेंगे तब तक मीडिया की गंभीर भूमिका कठिन ही है।
Saturday, June 6, 2009
मैने एक सपना देखा है।
Thursday, April 30, 2009
मोदी सबित होंगे भारत के हिट्लर
Wednesday, April 8, 2009
tare zameen par
Thursday, March 12, 2009
समय का खेल हारने के बाद कोई भी सफलता अर्थपूर्ण है
Tuesday, March 10, 2009
हिटलर की काली दुनिया
Saturday, February 21, 2009
केवल दो तरह के ही लोग हैं
Thursday, February 19, 2009
साधू या शैतान.................
साधू या शैतान........................
साधुओं से मेरे अनुभव बहुत ही बुरे रहे हैं यहां तक कि अब मैं उनसे कभी नहीं मिलना चाहता, यहां एक बड़ा धार्मिक मेला लगा हुआ है। दादी के आग्रह करने पर मैं भी एक बाबा के आश्रम में चला गया। यहां पर मुझे बेहद अप्रिय अनुभव हुए। बाबा मुझसे आर्थिक स्थिति के बारे में पड़ताल करने लगा(लगे यूज नहीं कर रहा हूं क्योंकि वह साधू के भेष में शैतान था। घर की महिलाओं के बारे में उसकी दिलचस्पी से मैं बुरी तरह से व्यथित हो गया और गुस्से में बाहर आ गया। परिवार वाले नाराज हो गये कि इतने पहुंचे हुए बाबाजी का मैंने अपमान कर दिया। लेकिन धर्म के आड़ में अधर्म करने वाले इन ढोंगियों से अब कभी संवाद नहीं करने का फैसला मैंने किया है। थोड़ी दूर पर देखा, एक कोढ़ी जिसका अंग-अंग कोढ़ से गल गया था खून से लथपथ भीख मांग रहा था, मैंने जेब टटोली, केवल 10 के नोट थे तो मैं आगे बढ़ गया। तब मन में विचार आया कि कोढ़ग्रस्त भिखारियों के लिए हमारे पास केवल 1 या 2 रुपए होते हैं लेकिन ढोंग को बढ़ावा देने वाले इन साधुओं को गाली सुनने के बावजूद हम हजारों रुपए का दान कर देते हैं।